मन रिश्तों का
मान्यताओं का
स्वीकृति अस्वीकृति का आधार होता है !
मन से परे जो कुछ है
वह अनिद्रा का
चिडचिडेपन का
वैराग्य का कारण है !
हम पुराने समय से कहते आए हैं -
विवाह की जोड़ी स्वर्ग से बनकर आती है !!
यदि यह सत्य होता
तो जोडियाँ टूटती नहीं ,,,
ऐसे विवाह प्रयोजन मात्र होते हैं
जैसे शिखंडी को प्रभु ने भीष्म की मृत्यु का
प्रयोजन बनाया !
अग्नि मन की होती है
मंत्रोच्चार मन के होते हैं
गठबंधन मन का होता है
परिक्रमा मन की होती है
जहाँ मन होता है
वहाँ भटकन नहीं होती है....
सत्य तो बस मन जानता है
...
प्रत्यक्ष , परोक्ष के अंतर को यदि हम जान लें
तो सारी दुविधाएं मिट जाएँ !
अन्यथा या तो हम दूसरों को छलते हैं
या खुद को
और कहानियाँ गढ़ते जाते हैं !
राम ने प्रत्यक्ष सीता का त्याग किया
पर परोक्ष में सीता हमेशा रहीं
यज्ञ में भी उनका ही अस्तित्व रहा
.......
रुक्मिणी के साथ होकर भी कृष्ण के साथ
राधा का अस्तित्व बना रहा
और दुनिया ने इस रिश्ते को पूज्य बनाया ....
सत्य की व्याख्या असंभव है
क्योंकि हम उसे स्वीकारते नहीं
अपनी तथाकथित गरिमा के लिए
झूठी ज़िन्दगी में करवटें लेते हैं
और त्याग, बलिदान की , संस्कारों की
पेंटिंग बन जाना चाहते हैं !
क्या यह संभव है ?
ईश्वर के आगे भी हम झूठ बनकर अनुष्ठान करते हैं
विघ्न तो हमारा झूठ है
फिर पूर्णता कैसे ?
किस बात में ?
मन के करघे पर जिस सत्य को हम बुनते हैं
ईश्वर उसे बड़ी बारीकी से देखते हैं
फिर देखते हैं हमारा पलायन
और ज़िन्दगी को सुनामियों के मध्य रख देते हैं ...
सुनामियाँ ईश्वर का प्रयोजन होती हैं
या तो डूब जाओ
या फिर बाहर आओ !!!
1 comments:
आपने एक कविता में बहुत से मुद्दे उठाये हैं लेकिन उनका विश्लेषण का एक आयाम और भी है.
और वह यह कि लोगों ने कथा के प्रक्षिप्त अंश को सत्य मान कर नारी कि अग्नी परीक्षा ली और बहुत सी औरतें सच्ची होने के बावजूद जला कर मार दी गयीं और मरने के बाद भी उन्हें और उनके कुनबे वालों को बदनाम होना पड़ा . हमें अपने पूर्वजों के इतिहास को गौर से देखना होगा और जो भी उनकी मर्यादा के खिलाफ नज़र आये , उसे मिलावट मानकर नकार देना होगा . मिलावट कि पहचान यह है कि वह नुकसान देती है .
चाहे वह मिलावट खाने पीने कि चीज़ों में हो या फिर ज्ञान में जो कि वास्तव में अमृत होता होता है.
आपकी कविता इसके बावजूद भी मन पर असर करती है और बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करती है .
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