विजय मिश्र बुद्धिहीन पेशे से रेलवे में अधिशासी इंजीनियर हैं। इंजीनियर का काम होता है लोहे के छोटे-छोटे टुकड़ों को समेट कर उसको रेलवे लाइनों पर चलाना, या यूं मान लें कि निर्जीव लोहे के टुकड़ों में जान भरकर उसको दौड़ाना। मगर 28 फरवरी 2010 को उनके जीवन गाड़ी मानो थम सी गयी। कहावत है कि अच्छे लोगों को ईश्वर जल्द अपने पस बुला लेता है। मैट की परीक्षा सर्वोच्च अंक से पास होने के बावजूद इनका सबसे दुलारा व सबसे बड़ा पुत्र आलोक इस फानी दुनियां को अल्विदा कह गया। उसे क्या मालूम कि उसके जाने के बाद लोहों में जान पैदा करने वाला इंजीनियर निर्जीव सा हो जायेगा। वह क्या जानता है कि किसके सहारे जिन्दा रहेगा उसका परिवार? मृत्यु सत्य है क्योंकि मरने के बाद फिर जिन्दा होना है। बकौल एक शायर.....
मौत जिन्दगी का वक्फा है
यानि आगे चलेंगे दम लेकर।
इस नश्वर शरीर को त्यागने के बाद नया जीवन जरूर मिलेगा आलोक को मगर उस नवजीवन से इस बुद्धिहीन का क्या सरोकार। सब उजड़ने के बाद आलोक तुम्हारी यादें ही सहारा हैं वरना अब कौन हमारा है। तुम्हे याद करते हुए.....यानि आगे चलेंगे दम लेकर।
चाहा जिसे हरदम रहे मेरे नजर के पास
दूर वह इतना गया न लौटने की आस।
जिसकी खुशी मेरे लिए की संजीवनी की काम
हाय मेरी जिन्दगी आई ना उसके काम।
आरजू मिन्नत इबादत हर जगह सज्दा किया
नयन जल भर अंजलि आराध्य पद प्रच्छालन किया।
पुष्प श्रद्धा के शिवशक्ति पर अर्पित किया
मौन रह मैं स्नेह सरिता किनारे था खड़ा
पर तोड़ कर बंधन सभी हमसे किनारा कर लिया।
विकट है यह जिन्दगी
पर है काटना
दुःख छिपा अंतस्थली में
केवल खुशी ही बांटना।
बोलना है अगर तो
बोलना मीठे
या फिर रहकर मौन
कर प्रभु आराधना।
जो स्मृति है शेष
ना तू उसका धारण कर
हो रहा जो घटित उस सत्य का वरण कर।
समय के आगे नहीं चलती हमारी ना तुम्हारी
मोह के बंधन बंधे हम सभी प्राणी अनाड़ी।
भोग अपना भोगना है हम सभी को अकेले
इसलिए अब तोड़ बंधन और दुनियां के झमेले।
कुछ भी मनुज का सोचना काम है आता नहीं
चाहे हम जितना वापस कोई आता नहीं।
चाह थी आखों में उसके ना कभी आंसू
ऐसा दिया कि अश्रू अब रूकते नहीं।
हर जगह मैं ढूढ़ता उसके सभी पदचिन्ह को
जगह तो दिखाते सभी पर वह कहीं दिखता नहीं।
हर कदम के आहटों पर आ रहा है नित कोई
सुन रहा पदचाप उसका पर अब तो वह आता नहीं।
छोड़कर स्थूल अंग अनन्त में है खोगया
नीद से मतभेद कल था, अब चीर निद्र सो गया।
विजय मिश्र बुद्धिहीन
दूर वह इतना गया न लौटने की आस।
जिसकी खुशी मेरे लिए की संजीवनी की काम
हाय मेरी जिन्दगी आई ना उसके काम।
आरजू मिन्नत इबादत हर जगह सज्दा किया
नयन जल भर अंजलि आराध्य पद प्रच्छालन किया।
पुष्प श्रद्धा के शिवशक्ति पर अर्पित किया
मौन रह मैं स्नेह सरिता किनारे था खड़ा
पर तोड़ कर बंधन सभी हमसे किनारा कर लिया।
विकट है यह जिन्दगी
पर है काटना
दुःख छिपा अंतस्थली में
केवल खुशी ही बांटना।
बोलना है अगर तो
बोलना मीठे
या फिर रहकर मौन
कर प्रभु आराधना।
जो स्मृति है शेष
ना तू उसका धारण कर
हो रहा जो घटित उस सत्य का वरण कर।
समय के आगे नहीं चलती हमारी ना तुम्हारी
मोह के बंधन बंधे हम सभी प्राणी अनाड़ी।
भोग अपना भोगना है हम सभी को अकेले
इसलिए अब तोड़ बंधन और दुनियां के झमेले।
कुछ भी मनुज का सोचना काम है आता नहीं
चाहे हम जितना वापस कोई आता नहीं।
चाह थी आखों में उसके ना कभी आंसू
ऐसा दिया कि अश्रू अब रूकते नहीं।
हर जगह मैं ढूढ़ता उसके सभी पदचिन्ह को
जगह तो दिखाते सभी पर वह कहीं दिखता नहीं।
हर कदम के आहटों पर आ रहा है नित कोई
सुन रहा पदचाप उसका पर अब तो वह आता नहीं।
छोड़कर स्थूल अंग अनन्त में है खोगया
नीद से मतभेद कल था, अब चीर निद्र सो गया।
विजय मिश्र बुद्धिहीन
असीम दुःख की इस घड़ी में विजय मिश्र बुद्धिहीन जो कि मेरी प्रेरण के श्रोत हैं, इनके तिल-तिल जलते मन के साथ संवेदना की गहराइयों से मैं इनके साथ हूं। ईश्वर से प्रार्थना और दुआ है कि इनको जिन्दगी की तल्खियों से महफूज रखे।
एम अफसर खान सागर
एम अफसर खान सागर
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