पानी और प्रशासन का स्वाभाव एक सा है, जिसका प्रवाह हमेशा ऊपर से नीचे की ओर होता है। अन्ना के तथाकथित सफल अभियान के बाद आजकल भारत में आम पीड़ित लोगों के साथ साथ भ्रष्टाचारी भी "भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन" में सक्रिय भूमिका अदा करते हुए दिखाई पड़ने लगे हैं। प्रत्यक्षतः आम लोगों का इससे जुड़ना सुखद तो लगता है लेकिन भ्रष्टाचारियों के जुड़ने से इसके विपरीत परिणाम की आशंका अधिक दिखाई देती है। डर यह है कि आजादी की तरह ही यह "भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन" भी कहीं कालक्रम में घोर भ्रष्टाचारियों के हाथ की कठपुतली न बन जाय।
चलिए पहले भ्रष्टाचार शब्द और उसके वर्तमान निहितार्थ को समझने की कोशिश करते हैं। ऐसा 'आचार' जो भ्रष्ट हो अर्थात जो आचरण सामाजिक और संवैधनिक रूप से सामान्य जन जीवन में सहज रूप से स्वीकार्य न हो, लगभग यही भ्रष्टाचार का अर्थ शाब्दिक रूप से किया जा सकता है। लेकिन आज जो भ्रष्टाचार का नया अर्थ भारतीय जन जीवन में आमतौर पर समझा जा रहा है उसकी सीमा मात्र "आर्थिक भ्रष्टाचार" तक सिमटती नजर आ रही है। जबकि भ्रष्टाचार का दायरा शाब्दिक रूप से जीवन के बहुत आयामों के नियमित आचरणों की ओर इशारा करता है। कभी कभी सोचता भी हूँ कि किसी शब्द के प्रचलित अर्थ क्या इसी तरह समय की जरूरत के हिसाब से अपना बिशेष अर्थ ग्रहण करते हैं? खैर-----
जब कोई चोर या कुकर्मी की पिटाई सरेआम होते रहती है तब एक सामान्य आदमी, जिसने आजतक एक चींटी भी नहीं मारी हो, वो भी उसपर दो हाथ चला देने में नहीं हिचकता। मेरे हिसाब से वहाँ एक मनोविज्ञान काम करता है। दरअसल वैसा व्यक्ति उस चोर को मारकर अपने भीतर के चोर को समझाता है या डराता है कि अगर वो भी ऐसा करेगा तो ऐसी ही सजा मिलेगी। अन्ना हजारे की भावना को प्रणाम करते हुए कहना चाहता हूँ कि उनके आन्दोलन के समय समग्र भारत में जो जन समर्थन मिला उसके पीछे कमोवेश इस मनोविज्ञान का प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रभाव रहा है। इसलिए ऊपर में मैंने "तथाकथित सफलता" शब्द का प्रयोग किया है।
इसी साल पहली मई को मुझे "इन्डिया एगेन्स्ट करप्शन" के एक कार्यक्रम में बुलाया गया। मैंने मंच से एक सवाल स्वयं सहित जनता के सामने रखा कि समस्त भारत में स्थापित भ्रष्टाचार की इतनी शानदार और मजबूत इमारत बनाने में क्या हमने भी तो किसी न किसी प्रकार एक ईट जोड़ने का काम तो नहीं किया है? सब अपने अपने गिरेबां में सच्चाई से तो झाँकें? यदि सचमुच हम सब आत्म-मंथन करें तो इस धधकते प्रश्न का उत्तर आसानी से नहीं दिया जा सकता क्योंकि प्रायः हम सभी ने कहीं न कहीं किसी न किसी प्रकार जाने अनजाने भ्रष्टाचार को मजबूत करने में अपना योगदान दिया है तभी तो आज यह भस्मासुर बनकर हम सबको, हमारी संस्कृति को नष्ट करने को आतुर है।
लगभग पैंतीस बर्ष पूर्व गरीबी की कृपा से मात्र सोलह बर्ष की उम्र में जब रोजगार के लिए घर से भावुकता में रोते रोते निकल रहा था तो याद आती है गाँव के ही एक उम्रदराज इन्सान की जिन्होंने मेरे प्रणाम करने पर कहा "बेटा रोओ मत - जीभ और आचरण (आचरण के लिए जो शब्द उन्होंने ग्रामीण परिवेश में प्रयोग किया उसका जिक्र उचित नहीं लगता) ठीक रखना - सुख करोगे"। फिर याद आती है उसके करीब पंद्रह साल बाद की एक घटना जब मैं पुनः अपने गाँव गया हुआ था। वही गाँव करीब उन्हीं के उम्र के एक व्यक्ति ने पूछा - क्या नौकरी करते हो? मैंने कहा हाँ। फिर प्रति प्रश्न कि "ऊपरी आमदनी" है कि नहीं? मेरा उत्तर नहीं। तब क्या खाक नौकरी करते हो?
यह एक नितांत व्यक्तिगत अनुभूति की बात है लेकिन यह मात्र पंद्रह बरस के अन्दर सामूहिक सांस्कृतिक अवनयन की दिशा की ओर संकेत अवश्य करता है। ठीक उसी तरह जिस तरह एक चावल की जाँच के बाद भात बनने या न बनने के संकेत मिल जाते हैं। फिर सोचने को विवश हो जाता हूँ कि ऊपर वर्णित पंद्रह बरस के बाद भी तो धरती पर और बीस बरस गुजर गए हैं जिस अवधि में गंगा का कितना पानी बह गया होगा।
नेता हो या अफसर, ये भी इसी समाज के अंग हैं, हम लोगों के बीच से ही ये लोग निकलते हैं, जो अपने ऊँचे ओहदे और दबंगई से इस भयानक बीमारी भ्रष्टाचार के कारक बने हुए हैं और स्वभावतः पूरे देश की आँखों की आजकल किरकिरी भी। लेकिन हमें ही सोचना होगा कि आखिर इन लोगों का इस दिशा में प्रशिक्षण प्रारम्भ कहाँ से हुआ? यहीं से मेरा यह कवि मन यह कहने को विवश हो जाता है कि सारे शासन तंत्रों में लोकतंत्र बेहतर होते हुए भी हमारा लोकतंत्र आजकल बीमार हो गया है और यकायक ये पंक्तियाँ निकल पड़तीं हैं कि ---
चलिए पहले भ्रष्टाचार शब्द और उसके वर्तमान निहितार्थ को समझने की कोशिश करते हैं। ऐसा 'आचार' जो भ्रष्ट हो अर्थात जो आचरण सामाजिक और संवैधनिक रूप से सामान्य जन जीवन में सहज रूप से स्वीकार्य न हो, लगभग यही भ्रष्टाचार का अर्थ शाब्दिक रूप से किया जा सकता है। लेकिन आज जो भ्रष्टाचार का नया अर्थ भारतीय जन जीवन में आमतौर पर समझा जा रहा है उसकी सीमा मात्र "आर्थिक भ्रष्टाचार" तक सिमटती नजर आ रही है। जबकि भ्रष्टाचार का दायरा शाब्दिक रूप से जीवन के बहुत आयामों के नियमित आचरणों की ओर इशारा करता है। कभी कभी सोचता भी हूँ कि किसी शब्द के प्रचलित अर्थ क्या इसी तरह समय की जरूरत के हिसाब से अपना बिशेष अर्थ ग्रहण करते हैं? खैर-----
जब कोई चोर या कुकर्मी की पिटाई सरेआम होते रहती है तब एक सामान्य आदमी, जिसने आजतक एक चींटी भी नहीं मारी हो, वो भी उसपर दो हाथ चला देने में नहीं हिचकता। मेरे हिसाब से वहाँ एक मनोविज्ञान काम करता है। दरअसल वैसा व्यक्ति उस चोर को मारकर अपने भीतर के चोर को समझाता है या डराता है कि अगर वो भी ऐसा करेगा तो ऐसी ही सजा मिलेगी। अन्ना हजारे की भावना को प्रणाम करते हुए कहना चाहता हूँ कि उनके आन्दोलन के समय समग्र भारत में जो जन समर्थन मिला उसके पीछे कमोवेश इस मनोविज्ञान का प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रभाव रहा है। इसलिए ऊपर में मैंने "तथाकथित सफलता" शब्द का प्रयोग किया है।
इसी साल पहली मई को मुझे "इन्डिया एगेन्स्ट करप्शन" के एक कार्यक्रम में बुलाया गया। मैंने मंच से एक सवाल स्वयं सहित जनता के सामने रखा कि समस्त भारत में स्थापित भ्रष्टाचार की इतनी शानदार और मजबूत इमारत बनाने में क्या हमने भी तो किसी न किसी प्रकार एक ईट जोड़ने का काम तो नहीं किया है? सब अपने अपने गिरेबां में सच्चाई से तो झाँकें? यदि सचमुच हम सब आत्म-मंथन करें तो इस धधकते प्रश्न का उत्तर आसानी से नहीं दिया जा सकता क्योंकि प्रायः हम सभी ने कहीं न कहीं किसी न किसी प्रकार जाने अनजाने भ्रष्टाचार को मजबूत करने में अपना योगदान दिया है तभी तो आज यह भस्मासुर बनकर हम सबको, हमारी संस्कृति को नष्ट करने को आतुर है।
लगभग पैंतीस बर्ष पूर्व गरीबी की कृपा से मात्र सोलह बर्ष की उम्र में जब रोजगार के लिए घर से भावुकता में रोते रोते निकल रहा था तो याद आती है गाँव के ही एक उम्रदराज इन्सान की जिन्होंने मेरे प्रणाम करने पर कहा "बेटा रोओ मत - जीभ और आचरण (आचरण के लिए जो शब्द उन्होंने ग्रामीण परिवेश में प्रयोग किया उसका जिक्र उचित नहीं लगता) ठीक रखना - सुख करोगे"। फिर याद आती है उसके करीब पंद्रह साल बाद की एक घटना जब मैं पुनः अपने गाँव गया हुआ था। वही गाँव करीब उन्हीं के उम्र के एक व्यक्ति ने पूछा - क्या नौकरी करते हो? मैंने कहा हाँ। फिर प्रति प्रश्न कि "ऊपरी आमदनी" है कि नहीं? मेरा उत्तर नहीं। तब क्या खाक नौकरी करते हो?
यह एक नितांत व्यक्तिगत अनुभूति की बात है लेकिन यह मात्र पंद्रह बरस के अन्दर सामूहिक सांस्कृतिक अवनयन की दिशा की ओर संकेत अवश्य करता है। ठीक उसी तरह जिस तरह एक चावल की जाँच के बाद भात बनने या न बनने के संकेत मिल जाते हैं। फिर सोचने को विवश हो जाता हूँ कि ऊपर वर्णित पंद्रह बरस के बाद भी तो धरती पर और बीस बरस गुजर गए हैं जिस अवधि में गंगा का कितना पानी बह गया होगा।
नेता हो या अफसर, ये भी इसी समाज के अंग हैं, हम लोगों के बीच से ही ये लोग निकलते हैं, जो अपने ऊँचे ओहदे और दबंगई से इस भयानक बीमारी भ्रष्टाचार के कारक बने हुए हैं और स्वभावतः पूरे देश की आँखों की आजकल किरकिरी भी। लेकिन हमें ही सोचना होगा कि आखिर इन लोगों का इस दिशा में प्रशिक्षण प्रारम्भ कहाँ से हुआ? यहीं से मेरा यह कवि मन यह कहने को विवश हो जाता है कि सारे शासन तंत्रों में लोकतंत्र बेहतर होते हुए भी हमारा लोकतंत्र आजकल बीमार हो गया है और यकायक ये पंक्तियाँ निकल पड़तीं हैं कि ---
वीर-शहीदों की आशाएँ, कहो आज क्या बच पाई?
बहुत कठिन है जीवन-पथ पर, धारण करना सच्चाई।
मन - दर्पण में अपना चेहरा, रोज आचरण भी देखो,
निश्चित धीरे-धीरे विकसित, होगी खुद की अच्छाई।।
तब दृढ़ता से हो पायेगा, सभी बुराई का प्रतिकार।
भारतवासी अब तो चेतो, लोकतंत्र सचमुच बीमार।।
कर्तव्यों का बोध नहीं है, बस माँगे अपना अधिकार।
सुमन सभी संकल्प करो कि, नहीं सहेंगे अत्याचार।।
पूरी रचना यहाँ है - http://manoramsuman.
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