लाख हमसाये मिले हैं आईनों के दर्मियां.
अजनवी बनकर रहा हूं दोस्तों के दर्मियां.
काफिले ही काफिले थे हर तरफ फैले हुए
रास्ते ही रास्ते थे मंजिलों के दर्मियां.
वक़्त गुज़रा जा रहा था अपनी ही रफ़्तार से
एक सन्नाटा बिछा था आहटों के दर्मियां.
राख के अंदर कहीं छोटी सी चिंगारी भी थी
इक यही अच्छी खबर थी हादिसों के दर्मियां.
इसलिए बचते-बचाते मैं यहां तक आ सका
एक रहबर मिल गया था रहजनों के दर्मियां.
किसकी किस्मत में न जाने कौन सा पत्ता खुले
एक बेचैनी है 'गौतम' राहतों के दर्मियां.
----देवेंद्र गौतम
ग़ज़लगंगा.dg: लाख हमसाये मिले हैं......
Posted on Saturday, July 9, 2011 by devendra gautam in
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2 comments:
हम तो यह सोचकर खुश हैं भाई
आजकल गौतम हैं हमारे दरमियाँ
उम्दा ग़ज़ल
हर शेर अर्थपूर्ण...जानदार
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