आधी जीत के मायने....

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  • Tuesday, August 30, 2011
  • by
  • महेन्द्र श्रीवास्तव
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  • मित्रों इसके पहले की मैं विषय पर अपने विचार रखूं, मैं व्लागर साथियों से बडी ही विनम्रता से एक बात कहना चाहता हूं। जिस दिन आप ये समझ लेते हैं कि जो कुछ जानते हैं सिर्फ आप ही जानते हैं तो समझ लीजिए की आपका पतन शुरू हो गया है। किसी के भी विचारों से आप सहमत या असहमत हो सकते हैं। उस विषय पर आपकी राय अलग हो सकती है और आप अपनी राय व्यक्त करने के लिए स्वतंत्र हैं। लेकिन आपकी सोच के मुताबिक विचार ना हो तो आप लिखने वाले को मेल भेज कर भाषा की मर्यादा की अनदेखी करें और उसे गाली दें। मुझे लगता है कि ऐसे कृत्य को किसी भी सभ्य समाज में कोई स्थान नहीं है। मैं हैरान हूं लखनऊ के डा. श्याम गुप्ता के कारनामों से। मेरे एक लेख पर उन्होंने मुझे जिस तरह अभद्र भाषा में मेल भेजा, वो मुझे परेशान करने वाला है। हालाकि मैं उन्हें जबाव दे चुका हूं, फिर भी इस बात का जिक्र यहां इसलिए कर रहा हूं कि लोगों को भी इस बात की जानकारी होनी चाहिए। मैं आपको बताना चाहता हूं कि आदरणीय रुपचंद्र शास्त्री जी कई बार मेरी राय से सहमत नहीं होते हैं, और टिप्पणी करते हैं " असहमत " । मुझे कोई दिक्कत नहीं होती। क्योंकि कोई जरूरी नहीं कि मेरा विचार ही अंतिम सच है। सिक्के का दूसरा पहलू भी है, शायद वो सही हो। बहरहाल मेरा अनुभव है कि ब्लाग पर तमाम लोग कुछ खास विचारधारा से ना सिर्फ प्रभावित हैं, बल्कि वो यहां दूसरों को भी प्रभावित करने की कोशिश करते हैं। ये मन की पीडा थी, जिसे आप सब के साथ मैं बांटना चाहता था। आइये बात करते हैं अपने विषय की......।

    सच कहूं तो ये एक बड़ा सवाल है। आधी जीत की परिभाषा क्या है। मेरी नजर में तो जीत सिर्फ जीत होती है, आधी या फिर चौथाई कहकर खुद को खुश करने का ये बहाना भर है। मैने पिछले लेख में आपको संसदीय प्रक्रिया की जानकारी देने की कोशिश की थी, जिसमें बताया था कि संसद में किसी विषय पर कैसे चर्चो होती है। पहले तो आप यही जान लें कि शनिवार को जो चर्चा हुई, वो बेमानी है, उसका कोई मतलब ही नहीं है। क्योंकि केंद्रीय वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी ने संसद में कोई प्रस्ताव नहीं रखा, सिर्फ एक बयान दिया, जिस पर चर्चा तो हुई, पर संसद के किसी नियम के तहत नहीं। लिहाजा चर्चा खत्म होने पर कोई प्रस्ताव स्थाई समिति को नहीं भेजा गया, बल्कि ये कहा गया कि नेताओं ने जो भाषण दिए हैं, वही स्थाई समिति को भेज दी जाए। इसमें कौन सी जीत आपको दिखाई दे रही है।
    लोकपाल का बिल ड्राप्ट करना है स्थाई समिति को। उस स्थाई समिति को जिसमें लालू यादव जैसे सांसद भी इसके सदस्य हैं। लालू खुलेआम सिविल सोसाइटी का विरोध कर रहे हैं। इसके अलावा मायावती की पार्टी बहुजन समाज पार्टी ने भी इसका विरोध किया। कई राजनीतिक दलों ने मंत्री के वक्तव्य पर टिप्पणी की और उसमें कई तरह के संशोधन का जिक्र किया। इसके बावजूद सरकार की ओर से कहा गया कि प्रस्ताव सर्वसम्मति से पास हुआ। मित्रों आप खुद समझ सकते हैं कि सरकार की मंशा क्या है। सच सिर्फ इतना है कि अन्ना के आंदोलन से सरकार ही नहीं विपक्ष की भी मुश्किलें बढ गई थीं और वो किसी भी सूरत में अन्ना का अनशन समाप्त कराना चाहते थे, जिसमें वो कामयाब हो गए।
    अन्ना क्या मांग कर रहे थे। वो कह रहे थे कि संसद में जनलोकपाल बिल पेश किया जाए और उसे पास कर 30 अगस्त तक कानून बनाया जाए। उनकी ये बात पूरी नहीं हुई। फिर अन्ना ने 30 अगस्त तक कानून बनाने की बात छोड दी और कहा कि उनके बिल पर संसद में चर्चा की जाए और उस पर मतदान कराया जाए। लेकिन सरकार ने बिना किसी नियम के संसद में महज एक बयान देकर चर्चा की और कोई प्रस्ताव पास नहीं किया। अन्ना ने कहा कि संसद मे सर्वसम्मति से बिल पास हो जाने पर वो अनशन तो तोड़ देगें लेकिन रामलीला मैदान में धरना जारी रहेगा। लेकिन हुआ क्या.. संसद में चर्चा के बाद अन्ना के पास कोई प्रस्ताव भेजने के बजाए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का पत्र लेकर विलासराव देशमुख पहुंचे और अन्ना को अनशन खत्म करना पड़ गया।
    सवाल ये है कि अन्ना खुद अपना जनलोकपाल बिल संसद की स्थाई समिति को सौंप आए थे। बाद में प्रधानमंत्री ने भी इसे स्थाई समिति को भेज दिया था। उस दौरान टीम अन्ना से कहा गया कि अब वो अपनी बात स्थाई समिति से करें। लेकिन टीम अन्ना ने उस समय ऐसा नहीं किया। अब नई बात क्या हुई, क्या टीम अन्ना स्थाई समिति से बात नहीं कर रही है। मित्रों संसद में पेश किए जाने वाले किसी भी बिल को स्थाई समिति ही ड्राप्ट करती है। ऐसे में टीम अन्ना किस जीत की बात कर रही है। ये कम से कम मेरे समझ से परे है।
    हां इस बात के लिए मैं अन्ना जी को जरूर क्रेडिट देना चाहूंगा कि भ्रष्टाचार जो आज एक गंभीर मुद्दा है, लेकिन इस पर आम जनता खामोश थी, उसमें जान फूंकने का काम किया अन्ना ने। आज जिस तरह से लोग भ्रष्टाचार के खिलाफ एकजुट हैं, वो आने वाले समय में सिर्फ नेताओं के लिए नहीं, बेईमान अफसरों और कर्मचारियों पर भी लगाम लगाने मे जरूर कामयाब होगा।
    इस दौरान एक चौंकाने वाला आरोप लगा अन्ना के अनशन पर। अगर टीम अन्ना ने सरकारी डाक्टरों को अन्ना के चेकअप करने से ना रोका होता तो ये आरोप को सिरे से खारिज किया जा सकता था। लेकिन लालू यादव ने अन्ना और उनके चिकित्सक डा. नरेश त्रेहन को बातों बातों में संदेह के घेरे में खडा कर दिया। उन्होंने यहां तक कहा कि इस पर दुनिया भर के डाक्टरों को रिसर्च करना चाहिए कि 74 साल का बुजुर्ग 12 दिन भूखे रहने के बावजूद किस तरह टनाटन बोल रहा है। वैसे अन्ना इसका जवाब ना देते तो बेहतर था, लेकिन उन्होंने लालू यादव की बात का जवाब दिया कि जिसने 12 बच्चे पैदा किए हों, वो ब्रह्मचर्य जीवन जीने वालों की ताकत को क्या जानेगें। हालाकि इसके बाद जो बात हुई, इससे ये विवाद और गहरा गया। कहा गया कि तो क्या बाबा रामदेव जो छह दिन में ही ढीले पड गए थे, वो ब्रह्मचर्य का जीवन नहीं जी रहे हैं। बहरहाल इस विवाद को यहीं छोड देता हूं, लेकिन इतना सही है कि अन्ना के अनशन पर तो उंगली उठ ही रही है।
    इस पूरे प्रकरण में मीडिया की भूमिका पर सवाल खडे़ हो रहे हैं। ये सही है कि मीडिया को अन्ना और उनकी टीम ने खूब सराहा। आम जनता को भी मजा आ रहा था, वो जो कुछ कहना चाहती थी, मीडिया ने उन्हें भरपूर मौका दिया। लेकिन मुझे लगता है कि मीडिया को मंथन करना होगा कि ऐसे मौकों पर क्या जनभावना के साथ उन्हें भी बह जाना चाहिए, या फिर किसी तरह का नियंत्रण जरूरी है। मित्रों आपको बताना चाहता हूं कि मुंबई में जब ताज होटल पर हमला हुआ तो यहां मीडिया ने जिस तरह रिपोर्टिंग की, उससे ताज होटल में मौजूद आतंकी टीवी पर बाहर की सभी गतिविधियों को देख रहे थे, उन्हें पता चल रहा था कि उन्हें घेरने के लिए किस तरह कमांडो कार्रवाई की जा रही है। बाद में मीडिया ने यह कह कर पीछा छुडाने की कोशिश की कि ऐसा हमला पहली बार हुआ है, और हमें जो सतर्कता बरतनी थी वो नहीं बरत सके। देश की इलेक्ट्रानिक मीडिया अभी अपरिपक्व है, लेकिन प्रिंट से बेहतर की उम्मीद थी, पर जनभावना के आगे उन्होंने भी घुटने टेक दिए। दूसरे देशों में इस आंदोलन की तुलना सीरिया, लीबिया और मिश्र के आंदोलनों से की जाने लगी। दुनिया में देश के सम्मान को चोट पहुंचा। मुझे लगता है कि मीडिया आंदोलन की रिपोर्ट देने के बजाए इस आंदोलन की एक महत्वपूर्ण कड़ी बन गई थी। सच ये है कि सरकारी चाल की जानकारी अगर मीडिया ने लोगों को दी होती तो सबको सच्चाई का पता चलता।
    इस आंदोलन की सबसे बडी ताकत थी गांधीवादी तरीके से आंदोलन का संचालन। हजारों की भीड लेकिन सब अनुशासन में। लेकिन इस अनुशासन को मंच पर तार तार किया ओमपुरी और किरन बेदी ने। सस्ती लोकप्रियता के लिए किरन बेदी भले ही अपने कृत्य को जायज ठहराएं, लेकिन मैं इसे कत्तई गांधीवादी आंदोलन का हिस्सा नहीं कह सकता। मंच पर इससे फूहड कुछ भी नहीं हो सकता। इसने आंदोलन की गंभीरता को कम किया। बाकी कसर स्वामी अग्निवेश ने पूरी कर दी।
    सामाजिक संगठनो ने भी इसमें सही भूमिका नहीं निभाई। सामाजिक कार्यकर्ता अरुणा राय ने जब मीडिया के सामने लोकपाल पर जब एक अलग बिल आगे बढाया तो ऐसा लगा कि अन्ना के खिलाफ ये एक साजिश है। लोग इसे सरकारी हथकंडा तक बताने लगे। बहरहाल अब स्थाई समिति के सामने ये मेरा बिल ये तेरा बिल करके लोकपाल को लेकर इतने मसौदे आ चुके हैं कि सभी का निस्तारण करने में समिति के हाथ पांव फूल रहे हैं। संवैधानिक मर्यादाओं में बंधी समिति को सभी मसौदों पर चर्चा करना जरूरी है। ऐसे में जाहिर है कि उसे और समय देना हो होगा।
    जनलोकपाल बिल में कई ऐसे मुद्दे हैं, जिनका सीधा संबंध राज्य सरकारों से है। ऐसे में बिल पास करने के पहले समिति को ये भी ध्यान रखना होगा कि कहीं राज्य सरकारों की स्वायत्तता का अधिग्रहण ना हो जाए। अगर ऐसा हुआ तो बिल पास हो जाने के बाद राज्य सरकारों को इस बिल पर विधानसभा में भी सहमति बनानी पडेगी। इससे ये खतरा भी बढ सकता है कि कुछ राज्यों में ये कानून लागू हो जाए और कुछ स्थानों पर इसे लागू ना किया जाए।
    बहरहाल सच ये है कि भ्रष्टाचार से देशवासी परेशान हैं और इसके लिए सख्त कानून बनना ही चाहिए। लेकिन कहते हैं ना कि वीणा के तार को इतना ना कसें कि तार ही टूट जाए और ना ही इतना ढीला कर दें कि उसमें सुर ही ना निकले। आपको पता है कि कानून से अपराध रुकते नहीं हैं, बल्कि इससे अपराधियों को सजा मिलती है। महात्मा गांधी जी का ही कहना था कि हमारी कोशिश ऐसी होनी चाहिए 99 गुनाहगार भले ही छूट जाएं, पर एक भी बेगुनाह को सजा नहीं मिलनी चाहिए। मुझे लगता है कि दहेज के मामले में बहुत सख्त कानून जरूर बना, पर इसका दुरुपयोग भी सबसे ज्यादा हो रहा है। ऐसे में मुझे भरोसा है कि कानून में गांधी जी की भावना का ध्यान रखा जाएगा और भ्रष्टाचार पर एक सख्त कानून जरूर पास होगा।

    5 comments:

    shyam gupta said...

    ---प्रसंग को सिर्फ 'असहमत ' कहकर ..'कोऊ नृप होय हमें का हानी ' कहकर छोड़ देना है...इसका अर्थ सभी समझ सकते हैं कि यह कौन सी वृत्ति है ....
    ---इस आलेख का पूरा अर्थ सिर्फ अन्ना कमेटी व सहयोगियों को बदनाम करना है...ऐसे आंदोलन जनमत जागृति के लिए होते हैं ..अपनी सरकार, अपने देश, अपनी जनता के बीच में जीत -हार क्या...विचार सम्प्रेषण ही महत्त्व पूर्ण होता है ...

    --""लेकिन मैं इसे कत्तई गांधीवादी आंदोलन का हिस्सा नहीं कह सकता।"" ..
    --कौन पूछ रहा है आपको...सारा देश ही मान रहा है, चोर को चोर कहना क्या गलत है ... ---क्या आपने गांधी आंदोलन देखा है...क्या गांधी के आंदोलन में चौरा-चौरी घटना नहीं हुई ....?
    ---ये क़ानून में गांधी जी की भावना क्या होती है स्पष्ट करें ...

    महेन्द्र श्रीवास्तव said...

    मै देख रहा हूं कि लोग अन्ना के पीछे खडे होकर अपनी कमीज ज्यादा सफेद दिखाने की कोशिश कर रहे हैं।
    खैर सबकी अपनी अपनी सोच है। लेख कुछ होते है विचार कुछ

    महेन्द्र श्रीवास्तव said...
    This comment has been removed by the author.
    महेन्द्र श्रीवास्तव said...
    This comment has been removed by the author.
    vidhya said...

    sahi , yahi to aana hai na

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