मैं लफ्ज़-दर-लफ्ज़ खोखला होता गया .
मैंने की थी जिनसे उम्मीद मोहब्बत की
पैसा उनका ईमान था , पैसा उनका खुदा .
दोस्त बाँट लेते हैं दर्द दोस्तों के
देर हो चुकी थी जब तलक ये वहम उड़ा .
कुछ बातें खुद ही देखनी होती हैं मगर
मैं हवाओं से उनका रुख पूछता रहा .
उस किनारे पर तब गूंजें हैं कहकहे
इस किनारे पर जब कोई तूफां उठा .
तन्हा होना ही था किसी-न-किसी मोड़ पर
यूं तो कुछ दूर तक वो भी मेरे साथ चला .
तुम मेरी वफाओं का हश्र न पूछो ' विर्क '
मेरा नाम हो गया है आजकल बेवफा .
* * * * *
1 comments:
Nice poem.
स्वार्थ में अंधे होकर दूसरों का अधिकार छीनना, अविश्वास, निन्दा, घृणा आदि भावनाओं से भरा जीवन जीना नरक के समान माना गया है।
ऋषि-मुनि इस विषय पर हमें सतर्क करते हैं कि जो अज्ञानतावश इस प्रकार के जीवन को अपना लेते हैं, वे न केवल इस लोक में दुखी रहते हैं, बल्कि परलोक में भी उन्हें सुख -शांति की तलाश में भटकना पडता है। जब हमारा व्यक्तित्व निर्मल और निर्दोष होगा, तभी आध्यात्मिक भाव की सिद्धि सरलता से प्राप्त हो सकेगी।
http://hbfint.blogspot.com/2011/03/blog-post_4872.html
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