दोस्तों, क्या आप इस विचार से सहमत है कि-अपने
उसूलों(सिद्धांतों) पर चलने वालों का कोई घर* नहीं होता है, उनके तो मंदिर
बनाये जाते हैं. क्या देश व समाज और परिवार के प्रति ईमानदारी का उसूल एक
बेमानी-सी एक वस्तु है ?
*आवश्कता से
अधिक धन-दौलत का अपार, भोगविलास की वस्तुओं का जमावड़ा, वैसे आवश्कता हमारे
खुद द्वारा बड़ी बनाई जाती हैं. जिसके कारण धोखा, लालच और मोह जैसी
प्रवृतियाँ जन्म लेती हैं. इस कारण से हम अनैतिक कार्यों में लीन रहते हैं.
मेरे विचार में अगर जिसके पास "संतोष' धन है, उसके लिए आवश्कता से अधिक
भोग-विलास की यह भौतिकी वस्तुएं बेमानी है. उसके लिए सारा देश ही उसका अपना
घर है.
दोस्तों, अपनी पत्रकारिता और
लेखन के प्रति कुछ शब्दों में अपनी बात कहकर रोकता हूँ. मैं पहले प्रिंट
मीडिया में भी कहता आया हूँ और इन्टरनेट जगत पर कह रहा हूँ कि-मुझे मरना
मंजूर है,बिकना मंजूर नहीं.जो मुझे खरीद सकें, वो चांदी के कागज अब तक
बनें नहीं.
दोस्तों-गगन बेच देंगे,पवन बेच देंगे,चमन बेच देंगे,सुमन बेच देंगे.कलम के सच्चे सिपाही अगर सो गए तो वतन के मसीहा वतन बेच देंगे.
पूरा लेख यहाँ पर क्लिक करके पढ़ें: क्या उसूलों पर चलने वालों का कोई घर नहीं होता है ?
2 comments:
उसूलों पर चलनेवाला तो हमेशा फ़काट ही रहेगा... माल जो नहीं पकड़ता ना :)
श्रीमान जी, आपने सत्य कहा है.
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