मजबूरी का नाम न लो
मजबूरों से काम न लो
वक्त का पहिया घूम रहा है
व्यर्थ कोई इल्जाम न लो
धर्म, जगत - श्रृंगार है
पर कुछ का व्यापार है
धर्म सामने पर पीछे में
मचा हुआ व्यभिचार है
क्या जीना आसान है
नीति नियम भगवान है
न्याय कहाँ नैसर्गिक मिलता
भ्रष्टों का उत्थान है
रामायण की बात करो
भाई से प्रतिघात करो
टूट रहे हैं रिश्ते सारे
कारण भी तो ज्ञात करो
सुमन सभी संजोगी हैं
कहते मगर वियोगी हैं
हृदय-भाव की गहराई में
घने स्वार्थ के रोगी हैं
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4 comments:
रामायण की बात करो
भाई से प्रतिघात करो
टूट रहे हैं रिश्ते सारे
कारण भी तो ज्ञात करो
वाह!!!!!!बहुत सुंदर रचना,अच्छी प्रस्तुति........
MY RECENT POST...काव्यान्जलि ...: यदि मै तुमसे कहूँ.....
sach ko ujagar karti aapki post sarahniy hain .aabhar
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sundar post .aabhar
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Nice.
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