ऐसी सूरत चांदनी की.
नींद उड़ जाये सभी की.
एक लम्हा जानते हैं
बात करते हैं सदी की.
हम किनारे जा लगेंगे
धार बदलेगी नदी की.
मंजिलों ने आंख फेरी
रास्तों ने बेरुखी की.
जंग जारी है मुसलसल
आजतक नेकी बदी की.
जाने ले जाये कहां तक
अब ज़रुरत आदमी की.
अब ज़रूरत ही नहीं है
आदमी को आदमी की.
एक जुगनू भी बहुत है
क्या ज़रूरत रौशनी की.
ग़ज़लगंगा.dg: ऐसी सूरत चांदनी की:
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3 comments:
bhavbhini gajal aabhar.
एक जुगनू भी बहुत है
क्या ज़रूरत रौशनी की.
वाह!!!!बहुत सुंदर प्रस्तुति,..प्रभावी रचना,..
MY RECENT POST...काव्यान्जलि ...: गजल.....
वाह बहुत सुन्दर रचना |
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