सुलगती रोज चिताओं पर लोग रोते हैं
जमीर बेच के जिन्दा जो, लाश होते हैं
कुदाल बन के भी जीना क्या, जिन्दगी होती
चमक में भूल के नीयत की, सलीब ढोते हैं
शुकून कल से मिलेगा ये, चाहतें सब की
मिले क्यों आम भला उनको, नीम बोते हैं
लगी है आग पड़ोसी के घर में क्यों सोचें
मिलेंगे ऐसे हजारों जो, चैन सोते हैं
नहीं सुमन को निराशा है, भोर आने तक
जगेंगे लोग वही फिर से, जमीर खोते हैं
जमीर बेच के जिन्दा जो, लाश होते हैं
कुदाल बन के भी जीना क्या, जिन्दगी होती
चमक में भूल के नीयत की, सलीब ढोते हैं
शुकून कल से मिलेगा ये, चाहतें सब की
मिले क्यों आम भला उनको, नीम बोते हैं
लगी है आग पड़ोसी के घर में क्यों सोचें
मिलेंगे ऐसे हजारों जो, चैन सोते हैं
नहीं सुमन को निराशा है, भोर आने तक
जगेंगे लोग वही फिर से, जमीर खोते हैं
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