कैसी है मेरी भावनाएँ,तुमने जानने कि कोशिश कि है कभी।बस कह दिया इक पल में निरर्थक है तुम्हारी भावनाएँ।बड़ा वक्त लगता है ह्रदय की सरिता में इक भावना के कमल खिलाने में।इंसान अपनी भावनाएँ व्यक्त करता है,पर कैसे उसकी सार्थकता का दावा कर सकता है वो?वो खुद नहीं जानता कि उसकी भावनाएँ कौन सा रँग ले लेगी किस क्षण।
भावना मनुष्य के सद्विचारों का इक ऐसा उन्नत बीज होता है,जो इक सच्चे इंसान को जन्म देता है।भावों से भरा दिल हर किसी का नहीं होता।ये तो मिल जाता है,हजारो लाखों में किसी एक को।भावनाएँ ना सीखी जा सकती है,और ना दिखाई जा सकती है।ये तो उद्गार होता है,इक सच्चे इंसान के दिल का।छलकता है उसकी बातों से,महकता है उसके व्यक्तित्व में।
कहते है बिन भाव के आदमी शव होता है।बिन इंसानियत के एक उत्कृष्ट समाज,परिवार और राष्ट्र की कल्पना ही नहीं की जा सकती।भावनाएँ ना तो हमें विरासत में मिलती है और ना सिखते है हम देख कर इसे।ये तो एक सच्चे इंसान में इंसानियत की पहली और आखिरी निशानी होती है।
जब भावनाओं का सागर उमरने लगता है और इंसान की आत्मा गोते लगाने लगती है उसमें तो वही भावनाएँ दो बूँद बन कर हमारी आँखों से भी बह जाते है।खुशी के पल में प्रफुल्लित आँसू और दुख के क्षण में आह्लादित आँसू।आँसू एकमात्र वैसे संवेदना वाहक होते है,जो इंसान की भावनाओं का जीवंत रुप ले लेते है।ये एहसास सब ने किया होगा,आँखे जितना बरसती है मन हल्का होता जाता है।भावनाएँ पूर्ववत स्वरुप को धारण कर लेती है और मिलन व विरह दोनों बस इक पल में दृष्टिगोचर होने लगता है।
आज के आधुनिक परिवेश में बस व्यवसायिक दृष्टि ही सफलता का आधार बन गया है,तो हमारी भावनाएँ कितनी निरर्थक है।भावनाओं की सार्थकता तो बस इक कलाकार जान सकता है,जो अपनी भावनाओं को ही संगीतबद्ध करता है,भावनाओं की ही लेखनी चलाता है,और उसे ही गुनगुना कर सफल होता है।
कैनवास पर जो आकृति इक चित्रकार बना देता है कल्पनाओं का आखिर वो क्या होता है,भावनाएँ ही तो होती है उस कलाकार की जो स्केच से कैनवास पर खुद ब खुद इक रुप में दिखने लगती है।भावनाएँ ही कला है,इक कलाकार का आजीवन मीत।
प्रेमी की भावनाएँ प्रेमिका के प्रतीक्षा की चँद घड़ियाँ ही बया कर देती है।कैसे इक युगल विरह वेदना को सहता है और कैसे दूर होकर भी बस भावनाओं के अनोखे तार से जुड़ा होता है।प्रेम भी इक भावना ही है,जो भावुक और हर्षित ह्रदय का परिचायक होता है।इक प्रकार का आकर्षण ही तो होता है प्रेम जिसमें सामने वाला हमें अतिसुंदर और प्यारा जान पड़ता है।अपना सर्वस्व न्योछावर कर के भी प्रेमी युगल क्यों समाज की कुंठित मानसिकता की बलि चढ़ जाते है।यह प्रेम के ही चरमोत्कर्ष की संवेदनात्मक भावनाओं को दर्शाता है।
निरर्थक नहीं है मेरी भावनाएँ जो तुमने समझा ही कहा कभी या यूँ कहे कोशिश ही ना कि समझने की।तुम्हारे इंतजार में पलक पावड़े बिछाएँ यूँ ही निहारता तेरी राह।आने पर तुम्हारे लिपट जाता तुमसे और फिर कुछ ना कहना और ना सुनना।जाने पर तुम्हारे फिर तुम्हारे आने का इंतजार करना और बस सोचना तेरे बारे में।क्यों लगता है इतना निरर्थक वो सब,जो कल तक तुम्हारे लिए मेरा प्यार था।वो मेरी भावनाएँ,क्यों लगती है तुम्हे निरर्थक अब?क्या मेरा प्रेम खत्म हो गया तुमसे आज,जो मेरी भावनाएँ इतनी निरर्थक लगती है अब तुम्हें............।
2 comments:
बहुत बढ़िया सत्यम भाई
हरेक भावना निरर्थक नहीं होती.
लेकिन हरेक भावना सार्थक भी नहीं होती.
कौन सी भावना निरर्थक है और कौन सी सार्थक है ?, यह पहचानना बहुत ज़रूरी है तभी तो हम कह सकते हैं की हमारी यह भावना व्यर्थ नहीं है.
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