क्या विवाह सम्पूर्णता है ?!?

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  • Sunday, February 20, 2011
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  • रश्मि प्रभा...
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  • एक स्त्री , एक पुरुष जीवन का सम्पूर्ण आधार होते हैं ,
    शारीरिक, मानसिक स्तर पर दोनों एक-दूसरे को सम्पूर्ण बनाते हैं और इसके लिए विवाह की व्यवस्था की गई ...
    सामाजिक दायित्वों के निर्वाह के लिए !
    व्यवस्था दो लोगों के साथ चलने की सही बनाई गई, पर चयन कभी समाज ने , कभी परिवार ने अपने हाथों लिया
    और कभी स्वयं व्यक्ति गलत हो गया ... और ऐसे में विवाह सम्पूर्णता के विपरीत एक निभाने की प्रक्रिया में तब्दील
    हो गया , एक बोझ बन गया - शारीरिक और मानसिक स्तर की धज्जियां उड़ गईं !
    तो मेरे विचार से 'प्यार' जीवन की सम्पूर्णता है और यह किसी भी रिश्ते के तहत हो सकता है ... प्यार में एक दैविक गुण होता है, जो शक्ति ,
    सामर्थ्य , सकारात्मक सोच से भरा होता है . 'विवाह' एक सामाजिक दायित्व के अंतर्गत आता है , यदि इसमें प्रेम हो तो इससे बेहतर सम्पूर्णता
    कोई नहीं , क्योंकि यह आगे के कई मार्ग को सुगम बनाता है ! पर हमारे समाज में अधिकांश वैवाहिक रिश्ते ढोए जाते हैं , कहीं परिवार के लिए,
    कहीं अपनी छवि के लिए . लोग भूल जाते हैं कि ऐसी अपूर्ण स्थिति में सबकुछ बेतरतीब होता है... विशेषकर बच्चे इस अपूर्णता के मध्य खुद की सोच
    को निर्धारित नहीं कर पाते .............
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    आइये इसके अंतर्गत हम कुछ माननीय लोगों द्वारा भेजे गए विचारों पर गौर करें -

    क्या विवाह में ही जीवन की सम्पूर्णता है ...गाहे बगाहे ये प्रश्न मन को मथते रहते हैं ....

    सैद्धांतिक या पारिभाषिक रूप में देखे तो विवाह (Marriage) दो व्यक्तियों (प्राय: एक नर और एक मादा) का सामाजिक, धार्मिक या/तथा कानूनी रूपसे एक साथ रहने का सम्बन्ध है।
    विवाह = वि + वाह, अत: इसका शाब्दिक अर्थ है - विशेष रूप से (उत्तरदायित्व का) वहन करना
    (साभार ..विकिपीडिया )

    विवाह एक सूत्र/डोर /धागा है जिससे दो अपरिचित बंधते हैं और जीवन भर साथ चलने और उत्तरदायित्व वहन करने का प्रण करते हैं ...हालाँकि दो व्यक्तियों के आपसमें बंधने का कारण प्रेम ही होना चाहिए था मगर हमारे सामाजिक ढांचे ने एक तरह से इसे दो व्यक्तियों की एक दूसरे पर निर्भरता में तब्दील कर दिया है ... इसमेंकोई शक नहीं कि जीवन के कठिन रास्तों पर एक हमसफ़र का होना बहुत सुकून देता है ...हर व्यक्ति कभी न कभी ऐसा साथी चाहता ही है जिससे वह अपना सुखदुःख साझा कर सके और आनंद और सुकून के कुछ पल बिता सके ...मगर यदि यह निर्भरता प्रेम के कारण हो तभी आनंददायक हो सकती है , वरना सिर्फ समझौताहो कर रह जाती है ...जबकि सच्चा प्रेम वह है जो किसी भी प्रकार की निर्भरता , आशा या अपेक्षा से बंधा नहीं होता ... व्यवहार में विवाह को प्रेम के आनंद पर आधारित होना चाहिए मगर जब यह बंधन या समझौते का रूप ले लेता है तो प्रेम छू मंतर हो जाता है ...

    मानव जाति के विकास , श्रृष्टि की निरंतरता और व्यक्ति के जीवन में सरलता के लिए विवाह एक आवश्यक प्रक्रिया है लेकिन विवाह में व्यक्ति संकुचित हो जाता हैऔर परिवार उसकी प्राथमिकता हो जाती है ... यही होना भी चाहिए ...प्रेम दो व्यक्तियों के बीच बढ़कर , परिवार , समाज , देश और फिर श्रृष्टि तक विस्तार पाए ..

    विवाह में प्रेम नर और नारी के बीच का व्यवहार है जब कि जीवन जीने की आदर्श स्थिति मानव से मानव के प्रेम में है ...जीवन की सम्पूर्णता प्रेम में है....मानव से मानव का , प्रकृति, पशु , पक्षियों , समाज , देश , पृथ्वी सबसे प्रेम ..मानवता का अस्तित्व बनाये रखने लिए भी यही आवश्यक है ....अपनेप्रकृति प्रदत्त, वैधानिक या ईश्वर द्वारा निर्धारित रिश्तों से प्रेम तो सभी करते हैं , कर लेते हैं मगर लोक कल्याण के लिए प्रेम , करुणा और स्नेह के स्थाई भाव कीआवश्यकता है ...जो लुप्तप्राय सा हो चला है ... नफरतें , रंजिशें , आतंकवादी घटनाये , बढ़ते अपराध स्नेह और करुणा के सूखते स्त्रोतों के कारण ही अपना अस्तित्व बनाये हुए हैं ....

    डॉ। महावीरप्रसाद द्विवेदी ने 'प्रेम' की व्याख्या कुछ इस तरह की है कि - 'प्रेम से जीवन को अलौकिक सौंदर्य प्राप्त होता है। प्रेम से जीवन पवित्र और सार्थक हो जाता है।प्रेम जीवन की संपूर्णता है।'

    प्रेम चतुर मनुष्यों के लिए नहीं है। वह तो शिशु-से सरल हृदय की वस्तु है।' सच्चा प्रेम प्रतिदान नहीं चाहता, बल्कि उसकी खुशियों के लिए बलिदान करता है। प्रिय कीनिष्ठुरता भी उसे कम नहीं कर सकती।

    प्रेम एक दिव्य अनुभव , एहसास है जो स्नेह , करुणा और दुलार से पूरित होता है ...वह चाहे मानव से मानव का , मानव से प्रकृति का , माता- पिता से अपनीसंतान का ,या प्रेमी -प्रेमिका और पति- पत्नी के बीच हो ...

    निस्वार्थ प्रेम की पराकाष्ठा के रूप में हमारे शास्त्रों और धार्मिक प्रसंगों में राधा कृष्ण के प्रेम के अनेक दृष्टान्त है ...हालाँकि यह प्रेम भी दो व्यक्तियों नर /नारी के बीच का ही उदाहरण है मगर समूची श्रृष्टि इस के आनंद से अभिभूत है ...
    उन्हीं के अनुसार एक बार राधा से श्रीकृष्ण से पूछा- हे कृष्ण तुम प्रेम तो मुझसे करते हों परंतु तुमने विवाह मुझसे नहीं किया, ऐसा क्यों? मैं अच्छे से जानती हूंतुम साक्षात भगवान ही हो और तुम कुछ भी कर सकते हों, भाग्य का लिखा बदलने में तुम सक्षम हों, फिर भी तुमने रुकमणी से शादी की, मुझसे नहीं।
    राधा की यह बात सुनकर श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया- हे राधे, विवाह दो लोगों के बीच होता है। विवाह के लिए दो अलग-अलग व्यक्तियों की आवश्यकता होती है। तुम मुझेयह बताओं राधा और कृष्ण में दूसरा कौन है। हम तो एक ही हैं। फिर हमें विवाह की क्या आवश्यकता है। नि:स्वार्थ प्रेम, विवाह के बंधन से अधिक महान और पवित्रहोता है। इसीलिए राधाकृष्ण नि:स्वार्थ प्रेम की प्रतिमूर्ति हैं और सदैव पूजनीय हैं।

    राजस्थान के खेजडली ने तो प्रकृति प्रेम का अनूठा उदहारण प्रस्तुत किया है ...
    राजस्थान में एक कहावत प्रचलित है ..."सर सांठे रुंख रहे तो भी सस्तो जान " यानी यदि सर कटकर भी वृक्षों की रक्षा की जाए तो भी फायदे का ही काम है ...जोधपुर के किले के निर्माण में काम आने वाले चूने को बनाने के लिए लकडि़यों की आवश्यकता महसूस होने पर खेजड़ली गांव में खेजड़ी वृक्षों की कटाई का निर्णय किया गया। इस पर खेजड़ली गांव के लोगों ने निश्चय किया कि वे वृक्षों की रक्षा के लिए के लिए अपना बलिदान देने से भी पीछे नहीं हटेंगे .... आस पास के गांवों में संदेशे भेजे गए ... लोग सैकड़ों की संख्या में खेजड़ली गांव में इकट्ठे हो गए तथा पेड़ों को काटने से रोकने के लिए उनसे चिपक गए। पेड़ों को काटा जाने लगा, तो लोगों के शरीर के टुकड़े-टुकड़े होकर गिरने लगे। एक व्यक्ति के कटने पर तुरन्त दूसरा व्यक्ति उसी पेड़ से चिपक जाता। धरती लाशों से पट गई . कुल मिलाकर 363 स्त्री-पुरूषों ने अपनी जानें दीं। जब इस घटना की सूचना जोधपुर के महाराजा को मिली, तो उन्होंने पेड़ों की कटाई रुकवा दी .. पहले भी राजस्थान के निवासियों द्वारा वन सम्पदा के दोहन से बचाने के लिए अपना बलिदान दिया गया है ...
    प्रकृति प्रेम का इससे बड़ा और क्या उदाहरण हो सकता था .. यहाँ के निवासियों के लिए जीवन की सम्पूर्णता वृक्षों /प्रकृति से प्रेम में ही रही ...

    इस तरह समाज में अनेकानेक उदाहरणों ने साबित किया जा सकता है कि जीवन की सम्पूर्णता जीवन जीने में , आध्यात्मिक उन्नति , स्नेह, प्रेम और करुणा के विस्तार में है , सिर्फ विवाह में नहीं !
    =====================================================================वाणी शर्मा

    {क्या विवाह में ही जीवन की सम्पूर्णता है?मेरे विचार में हाँ.जब हम विवाह में जीवन की सम्पूर्णता की बात करते हैं तो सबसे पहले तो हमारे मन में यह स्पष्ट होना चाहिए कि आखिर "जीवन" क्या है ?, "विवाह क्या है? सम्पूर्णता से तात्पर्य क्या है और इन सबका मतलब क्या है? T.S Eliot ने अपनी एक रचना में कहा था कि जीवन "Birth,Coupulation And Death' के बीच सिमटी हुई प्राकृतिक स्थिति मात्र है .मेरा मानना है कि इस भौतिक अवस्था से इतर जीवन कहीं बहुत आगे की बात है. जीवन एक बहुआयामी स्थिति है जो विकास के कई चरणों में बँटा है.ऐसा भी कह सकते हैं की यह जीवन और मृत्यु के बीच लोक(संसार) और परलोक(संसार से इतर) जुड़ा सत्य है जिसे निरंतरता की आवश्यकता होती है और यही निरंतरता अंततः सम्पूर्णता में बदलती है,ऐसा मैं मानता हूँ.
    जहांतक विवाह का प्रश्न है तो क्या विवाह एक संस्था मात्र है,या फिर महज एक समझौता.किसी अंग्रेजी साहित्यकार ने सही कहा है "Marriage is a union of two kindered soul". व्यापक रूप से मेरा भी यही मानना है.यह मूल रूप से दो आत्माओं का मिलन है जिसका माध्यम बनता है शरीर और साक्षी बनते हैं समाज के विभिन्न वर्गों के लोग. मिलन की ऐसी व्यस्था प्रकृति का मूलाधार है और अन्य जीवों में भी अलग-अलग रूपों में विद्यमान है लेकिन मनुष्य द्वारा विकसित विवाह जैसी संस्था में एक स्थायित्व का भाव है जिसका उदहारण अन्यत्र विरल है.
    स्थायित्व का यह भाव संयोग मात्र नहीं है.इसके होने के पीछे है भोक्ताओं के जीवन में आयी विभिन्न प्रकार की समस्याएं-भौतिक एवं भावात्मक स्थितियां (किसी समय विशेष में अलगाव,व्याधियां ,विवाद ) जिसका उदगम संभवतः परिवार के विकास के क्रम से जुड़ा है. मनुष्य इसलिए मनुष्य है कि उसने अपने अनुभवों से सीखना जाना है.जैसे-जैसे समस्याएं आयी,वह निरन्तर इसके समाधान की खोज भी करता रहा.पर इस खोज के मध्य में सदा अपने को रखा,कभी अलग नहीं किया और उसे अपने जीवन में पूरी ईमानदारी से उतारता भी रहा. उसके सारे प्रयास तर्क की कसौटी परखरे उतरने के बाद ही अपनाएं गए होंगे,ऐसा मेरा विश्वास है.
    यही बात विवाह पर भी लागू होती है . सामाजिक प्राणी होने के नाते इस बंधन को स्वीकार करना शुरू-शुरू में एक स्वाभाविक विवशता हो सकती है क्योंकि परायेपन से इसकी शुरुआत होती है . इस परायेपन में ही छिपा होता है अपनेपन का बीज जो समय के साथ संबंधों की लहलहाती फसल में तब्दील हो जाता है, परिवाररुपी विशाल वृक्षका रूप ले लेता है.इन संबंधो का आधार होता है आपसी विश्वास जिसे एक-दूसरे के प्रति अपने समर्पित कर्मों द्वारा पैदा किया जाता है. यही विश्वास देता है एक दूसरे के लिए जीने का मकसद ,आगे बढने का आधार.यदि केवल आकर्षण(दैहिक) से जुड़ा होता सम्बन्ध(विवाह या मिलन ) तो इसका सफ़र इतना लम्बा नहीं हो पाता,क्योंकि आकर्षण एक समय-सापेक्ष अवस्था है.समय के साथ इसमें कमी आती जाती है . विवाह में आकर्षण एक मूल तत्व है जो प्रथम सोपान की तरह कार्य करता है या वैज्ञानिक भाषा में कहें तो रॉकेट के बूस्टर की तरह कार्य करता है. विश्वास इसका दूसरा सोपान है और समर्पण इसका तीसरा सोपान..
    इन सबके सहारे विवाह अपनी पूर्णता को प्राप्त करता है,अर्थात अपने लक्ष्य तक पहुंचता है.जिसका महत्वपूर्ण अवयव स्थायित्व है.
    "विवाह में ही जीवन कि सम्पूर्णता है" क्योंकि इसकी सहायता से समाज प्रकृति और पुरुष को नियमबद्ध तरीके से आपस में जोड़ता है . किसी सहृदय माली की तरह शुरुआत में इनकी देख-भाल करता है और संबंधों को प्रगाढ़ बनाने में मदद करता है जो आगे चलकर परिवार का आधार बनता है .परिवार के विस्तार के साथ ही जीवन में स्थायित्व का प्रवेश होने लगता है,आकर्षण का नया केंद्र बनने लगता है.जिससे सबंधों को नए आयाम मिलने लगते हैं. यही क्रम जीवन को धीरे-धीरे पूर्णता प्रदान करता है.पूर्णता वह स्थिति है जहाँ इन्सान अपनी असीमित इच्छाओं के भटकाव से मुक्त हो जाता है.मैं मानता हूँ कि.विवाह इस मुक्ति का सबसे सफल माध्यम है.
    पाश्चात्य सभ्यता में इस स्थायित्व का सर्वथा अभाव दिखता है क्योंकि यहाँ जीवन मूल्यों पर कहीं-न-कहीं आर्थिक मूल्य हावी दिखते है.यहाँ संबंधों में अत्यधिक बिखराव भी दिखता है.क्योंकि यहाँ एकांगी परिवार की अवधारण पारंपरिक परिवारवाद की अवधारण को नकारती प्रतीत होती है.विश्वास का अभाव भी एक कारक हो सकता है.आज कामोवेश हमारे देश के अधिकांश शहर इस समस्या से जूझ रहे हैं जो आम जीवन में एक अजीब सा खालीपन भरता जा रहा है.लोग तनाव का शिकार हो रहे है.
    विवाह अर्थात मिलन की व्यापक अवधारणा ही जीवन में पूर्णता ला सकती है.जीवन को सम्पूर्ण बना सकती है.
    वैसे तो अन्य संस्थाओं की भांति इसमें भी समय के साथ कुछ खराबी आई है जिसके परिणाम स्वरुप कई लोगों ने नए प्रकार के समझौतों में बंधकर नयेपन के साथ जीवन को आसानी से जीने का प्रयास किया है.परन्तु, कोई लिव-इन -रिलेसोंशिप तो कोई अकेलेपन में ढूंढ़ रहा है उसका पर्याय. पर, इससे समस्याएं कम होने की बजाए बढ़ी ही है.यह किसी समस्या का समाधान कैसे हो सकता है. किसी ने भी गंभीरता से इस बीमारी को दूर करने का प्रयास नहीं किया है. इसे तो आकर्षण से आगे बढ़कर विश्वास की नींव पर संबंधों की ईमारत खड़ी करके समर्पण के सीमेंट से जोड़कर रखने की जरुरत है ताकि जीवन को चैन से जीया जा सके, जिसका दूसरा नाम पूर्णता है.यह समर्पण ही है जीवन को व्यस्थित रूप में जोड़े रखता है रही इसमें आयी छोटी-मोटी खराबी की बात तो इसे अपने ईमानदार प्रयास से दूर किया जा सकता है.}

    ===================================================राजीव कुमार


    क्या विवाह जीवन की सम्पूर्णता है

    शायद कभी था भी नहीं. क्यूँकी विवाह की संस्था बनी ही थी समाज को व्यवस्थित करने के लिए ना की किसी सम्पूर्णता को सोच कर.
    इन्सान ने अपनी आदत के अनुसार उसे महत्वपूर्ण और सार्थक बनाने के लिए पूर्णता जैसे लक्ष्य डाल दिए. विवाह, जीवन और सम्पूर्णता तीन शब्द हैं
    और अपने अस्तित्व के लिए एक दूसरे पर आश्रित भी नहीं. जीवन प्रवाह है, विवाह एहसास और सम्पूर्णता लक्ष्य.

    विवाह की पारंपरिक परिभाषा थी - दो आत्माओं का मिलन, एक अटूट बंधन.
    स्त्री स्वभाव से अगर समर्पण के लिए इक्छुक थी तो पुरुष व्याकुल था एक ठौड़ - ठहराव के लिए और उस दृष्टिकोण से कई बार विवाह जीवन की सम्पूर्णता होता भी था.

    पर आज के मुक्त समाज में, जहाँ नारी और पुरुष दोनों ही किसी बंदिश में नहीं रहना चाहते, उसमे विवाह समाज के हर वर्ग के लिए मात्र एक शब्द होकर रह गया है, जिसके परखचे उड़ा दिए गए हैं, जो दिखावे और लेन देन का पर्यावाची होकर रह गया है. आज की स्त्री के लिए विवाह और समर्पण एक बेड़ी हैं, उसकी लाचारी के प्रतीक और पुरुष के लिए उसके स्वक्छंद विचारों पर एक अंकुश.

    आज की आधुनिक परिभाषा के अनुसार - विवाह दो व्यक्तियों का मिलन मात्र है और वो भी जरुरी नहीं स्त्री और पुरुष के बीच ही हों. जिसे जब तक चले चला लेना है और जिसमे किसी प्रकार का कोई कमिटमेंट की मांग नहीं होनी चाहिए.

    ऐसी स्थिति में विवाह जीवन की सम्पूर्णता है कहना ही बेमानी है न?
    ==================================सुमन सिन्हा


    यदि विवाह जीवन की सम्पूर्णता होता तो हम जन्म से ही विवाहित होते, क्योंकि जीवन जन्म से लेकर मृत्यु तक चलने वाली एक क्रिया है....विवाह दो लोगो के वैधानिक रूप से एक साथ रहने, खाने पीने सोने की वो प्रक्रिया है जिसे समाज स्वीकार करता हो....
    विवाह की अनिवार्यता भी सामाजिक परिपेक्ष्य में ही होती है, जैसे स्त्री किसी बच्चे को जन्म देकर माँ कहलाने का सौभाग्य तभी पाती है जब वह विवाहित हो...अथवा कुलक्षिणी कहलाती है. विवाह का आधार मानसिक विचारों का स्तर, आपसी समझ व प्रेम होना चाहिए... अधिकतर विवाह इस अवधारणा से नहीं होते, वे सामाजिक स्तर, मान-सम्मान, धन-वैभव व जाति-पांति के आधार पर सुनिश्चित किये गए वर /कन्या के साथ कर दिए जाते हैं...ऐसे विवाह में अक्सर दम्पति प्रेम व वासना के मध्य का झीना-सा फर्क समझ नहीं पाते....
    विवाह जीवन की सम्पूर्णता नहीं एक अंश है, जोकि अच्छा भी हो सकता है और बुरा भी .... जीवन में पूर्णता तभी आती है जब जीवन प्रेममय हो, यह जरूरी नहीं कि प्रेम विवाह के बाद ही हो सकता है, प्रेम किसी से भी कभी भी हो सकता है, उसके रूप भिन्न हो सकते हैं....पर सम्पूर्णता प्रेम से ही आती है ..
    प्रेम जीवन के ही साथ जन्म से मरण तक चलती रहने वाली प्रक्रिया है. माता-पिता, बंधू-बांधव, मित्र-हितैषी, सभी प्रेम से बंधे होते हैं, अपरिचित व भिखारी भी प्रेम के पात्र हो जाते हैं हाँ! यहाँ प्रेम का स्वरुप बदल जाता है, और हम उसे दया, करुना आदि नामों से पुकारते हैं....
    इसलिए यह कहना उचित नहीं की जीवन की सम्पूर्णता विवाह में निहित है..
    ==================================ज्योत्स्ना पाण्डेय

    समय का पहिया घूमते हुये बहुत कुछ अपने साथ उडा ले जाता है और नई नई राहें दिखाते हुये चलता रहता है।
    यही वक्त उन राहों पर चलते हुये हमारी ज़िन्दगी मे बहुत कुछ बदल देता है। कितने युग कितनी सभ्यतायें ,व्यवस्थायें ,कितनी मान्यतायें ,हमारे रिति रिवाज ,रहन सहन , कितना कुछ बदल जाता है फिर दिखाई देता है ज़िन्दगी का बदला हुया चेहरा।। हम कह सकते हैं कि बदलाव एक कुदरती व्यवस्था है जिसे रोका नही जा सकता सतयुग से कलयुग तक बदलाव को दृ्ष्टा तो रहे हैं लेकिन उस बदलाव को कोई रोक सका।
    इसी बदलाव को देखते हुये हमारे पूर्वजों को लगा होगा कि इस दुनिया को चलाने के लिये कुछ ऐसी व्यवस्थायें चाहिये जो इस बदलाव का तत्कालिक प्रभाव जीवन पर पडने से रोक सकें। या आदमी की लालसायें इस जीवन को नर्क न बना दें। इसी लिये दिनिया, देश समाज मे कुछ व्यवस्थायें की गयी ताकि जीवन सुचारू रूप से चलता रहे। अगर देखा जाये तो किसी व्यवस्था के बिना दुनिया देश समाज या घर चल ही नही सकता।
    लेकिन इन व्यवस्थाओं पर समय समय पर सवाल उठते रहे हैं क्रांम्तियाँ होती रही हैं और व्यवस्थायें बदलती रही हैं। पहली व्यवस्था अच्छी थी या आज की ये बाद की बात है और अपनी अपनी सोच की बात है।
    अब मुद्दे की बात पर आती हूँ । यहाँ मुद्दा है कि क्या शादी किसी व्यक्ति के लिये जरूरी है? मेरा मानना है कि बेशक किसी एक आदमी के लिये जरूरी नही। लेकिन सामाजिक व्यवस्था के लिये घर की व्यवस्था जरूरी है और घर के लिये शादी जैसी व्यवस्था जरूरी है ।शादी के बिना हम जिस समाज की कल्पना कर रहे हैं वो समाज हमे केवल दुर्गति की ओर ही ले जायेगा। ।
    घर परिवार आने वाली संतानो के लिये अनिवार्य व्यवस्था है जिस मे उसे माँ का प्यार दुलार और पिता का संरक्षण उसके शारीरिक मानसिक विकास के लिये बहुत जरूरी है। सोचिये अगर बिना शादी किये हम बच्चों को जन्म देंगे तो पहले तो उसे अपनाने को लेकर झगडे फिर उसके लिये दोनो के प्यार और पालन पशण की समस्या और जिस से उसका मानसिक विकास कैसा होगा इसे कोई भी सोच सकता है।
    बेशक समय के साथ शादी का रूप , अहमियत बदल गयी है। फिर भी हम भारतीयों मे बहुधा शादी एक पवित्र बन्धन जैसी व्यवस्था है। इस भौतिक युग मे भावनाओं, प्रेम प्यार और रिश्तों मे निरंतर गिरावट आ रही है। जिसके कारण इस आलेख मे आप्रासंगिक हैं। यहाँ मुद्दा केवल शादी को ले कर है। अब पति पत्नि का रिश्ता भी इस गिरावट से अछूता नही है। जहाँ पत अपनी पुरुष वादी सोच से बाहर आने को पूरी तरह तैयार नही वहीं औरत तेज़ी से इन पुरुषवादी धारनाओं को तोडने के लिये मैदान मे कूद पडी है। उसने आपनी आकाँक्षायें पूरी करने के लिये कमर कस ली है बेशक नारी स्वतन्त्रता के लिये अभी दशा और दिशा को सही मार्गदर्शन नही मिला है। और न ही पुरुष का सहयोग पूरी तरह मिल पाया
    आज हम टी.वी पर जो देख रहे हैं वो नारीवाद नही कुचली हुयी आकाँक्षाओं का कुरूप चेहरा है ।
    हम बात कर रहे थी कि अपनी आकाँक्षाओं के चलते दोनो के रिश्तों मे असंतुलन सा बनने लगा है। वो समय गया जब नारी गुट घुट कर जी लेती थी। लेकिन आज की नारी जाग चिकी है अगर पुरुष सहयोग नही करेगा तो ये समाज किस दिशा की ओर जायेगा इसकी कल्पना भी नही की जा सकती। कई परिस्थितियाँ ऐसी हैं जिस से आजकल के बच्चे शादी जैसे पवित्र बन्धन से कतराने लगे है। लेकिन फिर से वही बात दोहराना चाहती हूँ एक समाज की व्यवस्था के लिये सम्पूर्ण परिवार और घर जरूरी है घर चलाने के लिये शादी जरूरी है ताकि आने वाली संतानों को सही पालन पोषण सही मानसिक विकास मिल सके जो कि बिना शादी किये बच्चे पैदा करने से नही मिल सकता।
    कहते हैं न कि आँवला खाने मे कडवा लगता है लेकिन उसके गुण देखते हुये लोग उसे खाते हैं। शादी मे हम एक दूसरे के प्रति प्रतिबद्ध होते है कम से कम घर और बच्चों के लिये तो होते ही हैं। जिस ने जीवन मे समझौता नही करना सीखा वो तो किसी न किसी बात पर हमेशा ही तनाव मे रहेगा। बाहर के लोगों दुआरा शोषित होना, उनकी तरफ सहायता के लिये हाथ फैलाना फिर वो चाहे आपकी मजबूरी का जितना भी लाभ उठाये तो उस से अच्छा है घर मे अपने पति के साथ समझौता किया जाये।कम से कम अपने बच्चों की खातिर । कम से कम लड झगड कर दूसरे पल मान मनौवल केवल इसी व्यवस्था मे हो सकती है क्यों की आप बच्चों के बन्धन से भावनात्मक तौर से जुडे हुये हैं\ फिर आज कल देखा है कि बच्चों के पास माँ बाप के लिये समय नही तो अकेले माँ बाप को एक दूसरे का ही सहारा रहता है। इस व्यवस्था से बाहर तो अव्यवस्था सी ही होगी जिस से समाज बिखर जायेगा आगे आप खुद कल्पना कर सकते हैं। इस व्यवस्था के लाभ अधिक हैं हानियाँ कम ।इस समाज और देश के भाविष्य की खातिर ये बात नारी और पुरुष दोनो पर लागू होती है। अकेले घर चलाना दोनो के लिये ही कठिन है तो फिर इस व्यवस्था से परहेज क्यों? ये मेरे विचार हैं। किसी की भावनायें इस से आहत होती हों तो क्षमा चाहती हूँ। कुछ पँक्तियाँ मन मे हैं जिन पर विचार की जरूरत है---
    क्या खोऊगी क्या पाऊँगी
    जब इस आँगन से जाऊँगी
    स्वाभिमान या अभिमान
    गर्व या दर्प
    सम्मान या अपमान
    करना है इस पर विचार

    क्यों कि शादी
    नही है व्यापार
    मत सोच इसको
    किसी की जीत
    किसी की हार
    ये है सामाजिक व्यवस्था
    रख इसमे आस्था
    ===================================निर्मला कपिला


    हिंदू धर्म दक्षिण एशिया के प्रमुख धार्मिक परंपरा है । अपने अनुयायियों द्वारा हिंदू धर्म अक्सर

    सनातन धर्म के रूप में जाना जाता है । हिंदू धर्म के अनेक प्रकार में लोक धर्म, वैदिक हिंदू धर्म,

    तथा भक्ति परम्पराएँ इत्यादि शामिल हैं । हिंदू धर्म में योग परम्पराएँ, जैसे कि ज्ञानयोग,

    कर्मयोग इत्यादि, और विभिन्न रीति-रिवाज जैसे कि हिंदू-विवाह, उपनयन, श्राद्ध इत्यादि और

    सामाजिक मानदंडों पर आधारित दैनिक नैतिकता शामिल हैं ।

    हिंदू समाज का एक प्रमुख परंपरा है विवाह । हिंदू विवाह दो व्यक्तियों को जीवनभर के लिए जोड़ता है,

    ताकि वे पारिवारिक, शारीरिक तथा गृहस्थ धर्म का पालन कर सकें । यह प्रथा दो परिवारों को भी एक

    साथ जोड़ने का काम करता है ।

    शादी का मतलब समय, संस्कृति और स्थान के अनुसार बदलते रहता है । कहीं एकाधिक विवाह का

    चलन है तो निश्चित उम्र प्रतिबंध का । समाज में कुछ विवाहों को मान्यता दी गई है तो कुछ को नहीं

    । इससे यह होता है कि विवाह जैसे सामाजिक रिश्ता अपरिवर्तनीय कानूनी कोड और परंपराओं में

    संहिताबद्ध होकर रह जाता है और धीरे धीरे यही परम्पराएँ स्थिर पानी के जैसे सड़ने लगता है । बदतर

    बात तो यह है कि आधुनिक समाज में भी, विवाह या सामाजिक रिश्तों के कुछ रूप को अवैध करार दिया

    जाता है, और ऐसे रिश्तों को हिकारत की नज़र से देखा जाता है ।

    पर यहाँ, खासकर आजके समाज के परिप्रेक्ष में एक सवाल दिन व दिन जोर पकड़ता जा रहा है । वह

    सवाल यह है कि “क्या विवाह/शादी ही सम्पूर्णता है ?”। विवाह हो जाने से दो शरीर तो आपस में मिल

    जाते होंगे, पर क्या दो मानसिकता का मिलन केवल इस प्रथा भर से संभव है । कहीं ऐसा तो नहीं कि

    विवाह मात्र एक सामाजिक परंपरा, महज़ एक रस्म बनकर रह गया है ?

    हम जब पाश्चात्य समाज की ओर देखते हैं तो यह पाते हैं कि उनके यहाँ शादी की रस्म को उतना

    महत्व नहीं दिया जाता है जितना कि रिश्तों में प्रेम सम्बन्ध को । दो लोग आपस में मिलते हैं, दोस्ती

    होती है, शारीरिक आकर्षण के साथ साथ और चरित्र और हितों की अनुकूलता रहती है । कुछ समय

    के बाद एक दूसरे के साथ रहने लग जाते हैं । वे शादी करने का निर्णय ले सकते हैं या फिर कुछ समय

    यूँ ही साथ रहने का निर्णय ले सकते हैं । वैसे तो यहाँ इनका अपना निर्णय ही मुख्य है, पर परिवार

    और दोस्तों का भी कुछ अनौपचारिक दबाव रहता है । सामान्य रूप से पाश्चात्य समाज में शादी के

    यही मुख्य रूप है । इस तरह के प्रेम विवाह में विश्वास करने वालें अक्सर हिंदू समाज में व्याप्त

    व्यावहारिक विवाह (arranged marriage) को अनैतिक, दमनकारी, अमानवीय, करार देते हैं ।

    दूसरी तरफ जिन समाज में व्यावहारिक विवाह का चलन है वहां प्रेम विवाह को अनैतिक,

    मूर्खतापूर्ण, अदूरदर्शी और केवल शारीरिक सम्बन्ध बनाने का बहाना माना जाता है । जो

    व्यावहारिक शादी को मानते हैं, वो अक्सर कहते हैं कि यह पारंपरिक है, कि यह सामाजिक नैतिकता की

    पुष्टि करती है और दोनों परिवार के लिए अच्छा है ।

    इसमें सही कौन है और गलत कौन यह तय कर पाना बहुत मुश्किल है क्यूंकि यहाँ हम, अलग अलग

    समाज, अलग मान्यताएं और अलग संस्कृति की बात कर रहे होते हैं ।

    यहाँ एक बात ज़रूर कहना चाहूँगा कि व्यावहारिक शादियों में भी, जो विवाह मजबूरी में की जाती है,

    तथा जहाँ एक साथी को कोई विकल्प नहीं दिया जाता, स्पष्ट रूप से मानव गरिमा और अधिकारों का

    अपमान है । इसे प्रोत्साहित नहीं करना चाहिए । मजबूरी में की गई शादी तो एक तरह की गुलामी है

    । वैसे तो ऐसी शादी हमारे समाज में स्वीकार ली जाती है और कभी कभी जीवन बिताने का साधन बन

    जाती है पर ज्यादातर ये किसी एक के लिए दुःख का सबब बन जाती है । इसी तरह मानव अधिकारों के

    उल्लंघन के कारण ऐसी शादियाँ यूरोप और अन्य पाश्चात्य देशों में गैरकानूनी घोषित कर दी गई है ।

    दरअसल यह बात इस पर निर्भर है कि समाज में परिवार का कितना महत्व है । पाश्चात्य समाज

    में जहाँ व्यक्तिवाद परिवार से ज्यादा महत्वपूर्ण है, बच्चे घर से दूर जाते हैं और स्वतंत्र रूप से

    रोजगार, मित्रों का चयन करते हैं, अपने माता पिता से अलग और स्वतंत्र रहते हैं और जीवन बिताते

    हैं, प्रेम विवाह को मान्यता मिल गया है । वहीँ भारतीय समाज में, परिवार का महत्व बहुत ज्यादा है

    इसलिए व्यावहारिक विवाह को मान्यता मिला है ।

    आंकड़ों पर नज़र डालें तो हमें यह दिखता है कि पाश्चात्य देशों में तलाक का प्रतिशत हमारे देश

    से कहीं अधिक है । इस पर हम यह तर्क दे सकते हैं कि प्रेम विवाह अच्छा नहीं है, सफल नहीं है ।

    दरअसल ऐसा कहकर हम अपनी नासमझी का परिचय दे रहे हैं । प्रेम विवाह के अंतर्निहित मान्यताएं

    अलग होती हैं । यहाँ अल्पकालिक सुख को संभावित दीर्घकालिक खुशी के लिए एक मार्ग के रूप में

    महत्व दिया जाता है । जो रिश्ते सफल नहीं हो पते हैं उन्हें समाप्त कर दिया जाता है । ऐसा नहीं है कि

    यह अल्पकालिक है, बल्कि यह सोचा जाता है कि यह रिश्ता इस लायक नहीं है कि इसे आगे बढ़ाया

    जाय जब तक कि उस रिश्ते में अन्तर्निहित प्रेम है । इस तरह, प्रेम विवाह का उद्देश्य व्यक्तिगत

    (संबंध), स्थिरता है नाकि केवल शारीरिक सम्बन्ध ।

    कहने का मतलब यह है कि यदि विवाह केवल एक रस्म भर बन के रह जाता है तो उसका कोई औचित्य

    नहीं रह जाता । विवाह में सबसे ज़रूरी है आतंरिक प्रेम, एक दुसरे के प्रति सम्मान, एक दुसरे के गुण-

    दोष को समझना और व्यक्ति के साथ साथ परिवार को भी सम्मान देना । अपने साथी और उसके

    परिवार के साथ तालमेल बिठाना और एक-दुसरे के सुख-दुःख में साथ देना भी बहुत ज़रूरी है । कहते

    हैं कि किसी भी सम्बन्ध के चार स्तंभ होते हैं । वो हैं चाहत, समझ, प्रतिबद्धता और घनिष्ठता ।

    सबसे पहले तो एक दुसरे के प्रति चाहत और प्रेम का अनुभव करना ज़रूरी है, और फिर ज़रूरी है एक

    दुसरे को समझना और एक दुसरे के सुख-दुःख में साथ देना । किसी भी सम्बन्ध में एक दुसरे के प्रति

    प्रतिबद्धता यानि कि निष्ठा होना चाहिए और खास कर जो जीवनसाथी हैं उनमें शारीरिक तथा

    मानसिक घनिष्ठता होनी चाहिए ।

    यदि किसी सम्बन्ध में यह सबकुछ हो तो वह सम्बन्ध कितना मधुर और परिपक्व सम्बन्ध होगा

    । फिर क्या यह ज़रूरी है कि विवाह जैसे सामाजिक रस्म पूरी हो या नहीं ? शादी के बिना भी साथ रहने

    वालों को हमारे समाज में स्वीकार नहीं किया जाता पर दूसरी तरफ ऐसे लाखों लोग हैं जो विवाहित

    होकर भी विवाहेत्तर संबंधों में लिप्त रहते हैं । क्या यह सही है ? स्वीकार्य है ? ऐसी बातों तो अक्सर

    परिवार के अंदर ही दबाए रखने का प्रयास चलते रहता है । वही लोग जो परंपरा की कसमें खाते हैं,

    अक्सर दफ्तर में अपनी साथी महिला कर्मचारियों के प्रति कामना भरी नज़रों से देखते रहते हैं,

    विवाहोत्तर संबंधों में लिप्त रहते हैं या फिर पतितालय में जाते रहते हैं । फिर उस विवाह की पवित्रता

    कहाँ रहती है जिसके महत्व के बारे में वो कहते नहीं थकते ।

    भारतीय समाज में परंपरा के नाम पे बेशर्मी, स्वार्थ और राजनीति का नंगा नाच सदियों से चलता आ

    रहा है । अब वक्त आ गया है कि पढ़े-लिखे आधुनिक समाज में इन दकियानुसी रुढियों का नाश किया

    जाय और नए स्वस्थ तथा सुरुचिसम्पन्न परम्पराओं का निर्माण हो । संबंधों के बारे में नए सिरे

    से सोचा जाय और सामाजिक रस्मों और परम्पराओं को छोड़ संबंधों में प्रेम, समझ, और निष्ठा को

    बढ़ावा दिया है ।

    =============================================इन्द्रनील भट्टाचार्जी

    अब इसके अंतर्गत हमारे सम्माननीय लेखकों के विचारों की प्रतीक्षा है ..........

    3 comments:

    S.M.Masoom said...

    विवाह का उद्देश्य दम्पतियों को एक दूसरे के पास शान्ति प्राप्त करना बताया गया है। इसे प्रेम व अनुकम्पा का सार कहा गया है। इसका उद्देश्य परिवार का गठन और एक स्वस्थ पीढ़ी को जन्म देना भी है. विवाह का प्रचलन, समाज के कल्याण की ज़मानत है, क्या इसे सम्पूर्णता कहा जा सकता है? यदि हाँ तो यह सम्पूर्णता है.

    अहसास की परतें - old said...

    सुन्दर

    shyam gupta said...

    ------आखिर प्रेम क्या है? कैसे होता है? क्यों होता है? कब होता है....जब किसी भी परिस्थिति वश( चाहे जो भी स्थिति हो-सुन्दर, भीषण, खतरनाक, दुश्मनीयुत, मैत्रीयुत...) दो विपरीत लिन्गी मिलते हैं,या अधिक समय तक मिलते रहते है,या साथ साथ रहते हैं तो उनके मध्य एक स्वाभाविक लगाव, आकर्षण उत्पन्न होता है वही प्रेम है....कहा जाता है कि एक जानवर के साथ भी अधिक समय तक रहने से प्रेम होजाता है....
    ---तो प्रेम जीवन की सार्थकता तो होसकती है जो व्यक्तिगत सार्थकता है.. परन्तु पूर्णता नहीं। पूर्णता स्वयं में व्यष्टि से ऊपर उठकर समष्टिगत भाव है अतः वस्तुतः विवाह ही जीवन की पूर्णता है जिसमें सामाजिक, व्यक्तिगत, परार्थगत,राष्ट्रीय दायित्व निर्वहन का भाव होता है।
    --यह विवाह प्रेम-विवाह भी होसकता है जिसमे पहले प्रेम फ़िर विवाह...या समाज-परिवार द्वारा तय किया हुआ जिसमें पहले विवाह बाद में साथ-साथ रहते हुए भी प्रेम होसकता है...
    ---दोनों ही स्थितियां आदर्श हैं...मूल तथ्य व उद्देश्य व्यक्तिगत पूर्णता व समष्टिगत सम्पूर्णता का है...प्रेम और दायित्व दोनों के निर्वहन का है....

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