Mamta tripathi |
तारकेश्वर गिरी |
मुझे तो लगता है कि दिव्या जी के उपरोक्त लेख से आपको कोई व्यक्तिगत समस्या उत्पन्न हुई है। अन्यथा उस लेख में कोई भी ऐसी पृथक् एवम् आपत्तिजनक बात नहीं कही गयी है कि जिसपर आप एक पोस्ट करने पर बाध्य हो जायें। किसी नियम-कायदे का उसमें उल्लंघन नहीं है।
जो कुछ भी उक्त लेख में दिव्या जी ने लिखा है वह वर्तमान की माँग है। इधर कुछ दिनों एवम् कुछ वर्षों की घटनाओं पर यदि आप दृष्टिपात करेंगे तो स्थिति स्वयमेव स्पष्ट हो जायेगी। फिर आपको अपने इस लेख की निर्थकता भी महसूस होगी।
किसी सामाजिक समस्या पर बोलना इतना आसान नहीं होता। और जो भी बोलता है उसे आप जैसे ही लोगों का प्रबल, तीक्ष्ण, कटु विरोध का सामना करना पड़ता है। यह कोई नई बात नहीं है।
निर्वस्त्र होना अथवा अपनी मर्यादा लाँघना कोई सम्माननीय कार्य नहीं है, न ही इससे कोई बहुत सबल व सक्षम बन जाता है। बस अपनी ही हँसी करवाता है एवं सम्पूर्ण स्त्री-जाति को अपमानित होंने के लिये बाध्य करता है। आजकल मीडिया में आने और चन्द दिनों के लिये छा जाने का एक यह हथकण्डा भी है।
मुझे लगता है कि गिरि जी आपने निम्न पंक्ति के कारण इतना कुछ लिख दिया है
"कहीं पर समाज के ठेकेदार ( राम सेना के चीफ ) जैसे लोग मॉरल-पुलिसिंग करते हैं तो पर .............."
गिरि जी यह बात सर्वविदित है एवम् प्रयोगों तथा इतिहास के आधार पर खरी भी है कि जिस बात, व्यक्ति या विचारधारा का विरोध किया जाता है, उसकी जड़े समाज में और अधिक गहरे तक जाने की सम्भावना बन जाती है। व्यक्तिगत स्तर पर व्यक्ति को स्वतन्त्रता है कि वह कोई भी वस्त्र पहन सकता है कहीं भी जा सकता है। इसको रोकना इतना आसान नहीं है। चारित्रिक गुण एवम् चारित्रिक दृढ़ता बचपन के संस्कारों का सुफल होती है। यदि शैशव में संस्कार नहीं मिले हैं तो हम बलपूर्वक उनकी प्रतिष्ठा नहीं कर सकते।
हमारा युवा वर्ग इस तरह की हरकतें न करे इसके लिये हमें उन्हें दण्डित करने की आवश्यकता तो कदापि नहीं है। दण्ड से पहले भी कई विकल्प हैं। अर्थशास्त्र एवं स्मृति ग्रन्थों में भी इससे पहले साम-दाम-भेद का उल्लेख है। तब रामसेना वाले दण्ड का वरण ही प्रथमतः क्यों करते हैं? मेरे विचार से पहले उनको साम-दाम-भेद अपनाना चाहिये, इनकी असफलता पर ही दण्ड को अपनायें। परन्तु ये भी बात है कि साम-दाम-भेद नीति का क्रियान्वयन दण्ड जैसा सरल नहीं है, न ही इतना अल्पावधिक है। यह एक प्रक्रिया है जिसके स्थापन एवं क्रियान्वन में म्वर्षों का अथक एवं सजग श्रम लगता है। इसके साथ ही साथ साम-दाम एवं भेद के लिये एक कुशाग्र, नीतिज्ञ, विद्वान् व्यक्ति एवं एक सुदृढ़, सबल संगठन की आवश्यकता होती है, जिसके प्रत्येक सदस्य का मानस स्वार्थलिप्सा से मुक्त हो।
स्त्रियाँ अपनी बातों को मनवाने के लिये, सम्मान पाने के लिये निर्वस्त्र क्यों हो? क्या वे जीजाबाई बनकर शिवाजी जैसे व्यक्तित्व का निर्माण नहीं कर सकतीं? जो न केवल अपनी माँ को सम्मान, अधिकार दिलाये अपितु समस्त स्त्रीजाति के प्रति सम्माननीय दृष्टि रखे।
आज स्त्रीजाति को अपने मौलिक गुणों के संरक्षण एवं संवर्द्धन की आवश्यकता है, न कि निर्वस्त्र होकर इनके क्षरण की। एक विराट व्यक्तित्व का सृजन माँ के आचार, विचार एवं व्यवहार से होता है। अतः व्यक्ति, समाज एवम् राष्ट्रनिर्माण में स्त्रियों के सम्यक् आचार-विचार एवम् व्यवहार की बहुत आवश्यकता है। उनको अपने इस गुरुतर दायित्व को समझते हुए ऐसे किसी भी कार्य से दूर रहना चाहिये जो उनकी गरिमा के विरुद्ध हो।
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@ ममता जी ! आपने बहुत अच्छी टिप्पणी की है और शायद आप बड़ी हद तक भाई तारकेश्वर जी के मनोविज्ञान को समझने में भी सफल हुई हैं .
मैं आपकी इस अमूल्य टिप्पणी को यहाँ एक कोने में पड़कर बेकार जता नहीं देख सकता लिहाज़ा मैं इसे सादर यहाँ से ले जा रहा हूँ और आपको इस टिप्पणी को 'हिंदी ब्लागर्स फोरम इंटरनेश्नल' पर देखे के लिए आमंत्रित भी करता हूँ.
आप अपनी ईमेल आईडी बजकर इस इंटरनेश्नल फोरम की सदस्या भी बन सकती हैं.धन्यवाद.
2 comments:
tippani ko sahi sthan diya hai..
शिखा जी ! आपका शुक्रिया ! आप मुझे यह बताएँ कि आप मुझे गुरु क्यों मानती हैं ?
मैंने आपकी बहन शालिनी जी से भी कहा था कि वे आपसे पूछकर मुझे बताएं ।
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