बाबाजी खाना तैयार है, खा लीजिये, चलिये। पोते आराध्य की आवाज़ सुनकर मैंने पढ़ने की मेज से सिर उठाया। बेटा ! पापा आ गये, मैंने पूछा तो आराध्य ने बताया कि पापा तो बिज़ी हैं, देर से आयेंगे।
मैं सोचने लगा, बेटे के पास तो समय ही नहीं होता पिता से बात करने का। मैं सोचता गया कि जैसे स्त्रियों को सदैव सहारा-सराहना चाहिये; बचपन में माता, पिता, भाई, तदुपरान्त पति-पुत्र; इसी प्रकार पुरुष को भी तो सहारा चाहिये होता है। बचपन में असहाय बालक के लिये मां-बहन, बाद में पत्नी-बेटी, वृद्धावस्था में बेटी-बहू आदि।
सेवानिवृत्ति के पश्चात मुझे लगता है मैं पुनः बचपन में आ गया हूं। जैसे बचपन में अपने कमरे में कुर्सी पर बैठकर सोचते रहना, पढ़ते–लिखते रहना, कभी-कभी गृहकार्य में हाथ बंटा देना, खाना-पीना या कुछ सामाजिक कार्य कर देना। उसी तरह मैं अब भी अपनी कुर्सी पर बैठकर सोचता, पढ़ता, लिखता रहता हूं, कभी कोई समाज का कार्य व कभी-कभी गृहकार्य में हाथ बंटा देता हूं। पहले खाने-पीने, सहारे के लिये मां-बहन थीं, तदुपरान्त पत्नी व बेटी और अब वही कार्य पुत्रवधू, नाती-पोते कर रहे हैं। मूलतः परिवार का मुखिया ( जो उस समय पिता की भूमिका में होता है ) तो सदैव ही परिवार के पालन-पोषण की व्यवस्था में ही व्यस्त रहता है, इन सब से असम्पृक्त। वह तो अपने पारिवारिक निर्वहन के रूप में, आर्थिक व्यवस्था में व्यस्त रहकर ही समाज, देश, राष्ट्र की सेवा में रत होता है। उसे कब समय होता है दादी-बाबा से संवाद करने का। संबाद तो प्रायः दादी-बाबा, पोते-पोती ही आपस में करते हैं। इसीलिये कहा जाता है कि प्रायः पोता ही बाबा के पद चिन्हों पर चलता है, पुत्र की अपेक्षा। जैसे पहले मेरे पिता इस भूमिका में थे, बाद में मैं स्वयं और अब वही दायित्व व कृतित्व मेरे पुत्र द्वारा निभाया जा रहा है। यह तो जग-रीति चक्र है, विष्णु का चक्र है, पालन,पोषण चक्र; संसार चक्र है, जीवन चक्र, वंश चक्र,---भव चक्र है। यह परिवर्ती-क्रमिक चक्र सामाजिक क्रम है। यही तो मानव का नित्य याथार्थिक, सार्थक जीवन क्रम है, जिससे वंश, जाति व संसार उन्नति-प्रगति को प्राप्त होता है। ---
“परिवर्तिन संसारे को मृत वा न जायते।
स जातो, येन जातेन याति वंश समुन्नितम॥”
यद्यपि आजकल आणविक ( मौलेक्यूलर) परिवार में दादी-बाबा का महत्व घटता जा रहा है। पिता–माता के दायित्व वहु-विधात्मक होने से पुत्र-पुत्रियों पर ठीक से ध्यान नहीं दिया जा रहा फ़लतः परिवार के पुत्र-पुत्री, भावी पीढ़ी प्रायः दिशा विहीन होती जा रही है……
अभी भी सोच ही रहे हैं बाबाजी….खाना ठंडा हो रहा है। मुझे भी भूख लग रही है……. आराध्य की अधीरता भरी आवाज़ से मे्री तन्द्रा भंग हुई। मैंने मुस्कुराकर आराध्य की ओर देखा…..हां..हां चलो……हाथ धो लिये या नहीं।
------डॉ. श्याम गुप्त
2 comments:
स्वार्थ में अंधे होकर दूसरों का अधिकार छीनना, अविश्वास, निन्दा, घृणा आदि भावनाओं से भरा जीवन जीना नरक के समान माना गया है।
ऋषि-मुनि इस विषय पर हमें सतर्क करते हैं कि जो अज्ञानतावश इस प्रकार के जीवन को अपना लेते हैं, वे न केवल इस लोक में दुखी रहते हैं, बल्कि परलोक में भी उन्हें सुख -शांति की तलाश में भटकना पडता है। जब हमारा व्यक्तित्व निर्मल और निर्दोष होगा, तभी आध्यात्मिक भाव की सिद्धि सरलता से प्राप्त हो सकेगी।
http://hbfint.blogspot.com/2011/03/blog-post_4872.html
ये कमेन्ट तो नहीं स्टेटमेन्ट है....
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