राम की तो राम जानें /
खग-मृग से उन्होंने क्या पूछा,
क्या सुना जवाब
पर व्याकुल, एकाकी मैं...
तलाशता रहा तमाम ठीहे,जहां, कोई खग दिखे,
चोंच में तिनका या चिट्ठियां दबाए...
पर, नदारद सब के सब
पक्षिशास्त्र की किताबों में शामिल ब्योरों बीच कहीं गुटरगूं करते होंगे।
मृग,
`जू' में तालियां बचाते बच्चों के कंकड़ों और व्यर्थ के कुरकुरे संग कन्फ्यूज़ हैं...
सो, खग-मृग के बिना,
मृ़गनयनी तुम्हारे न होने की रपट मैं कहां दर्ज कराता,
किससे पूछता सवाल
बिरला मंदिर के ऐन सामने, कौन-सा है असली पंडित पावभाजी वाला...
यह जरूर तलाशता था..., तभी चिल्लाया कानों के ठीक बगल कोई...
कहो कहां है तुम्हारी वसंतलता...
कहां गई वो मृगनयनी!
मैं निस्तब्ध, अवाक्...
निरुत्तर हूं,
उन शहरों के सभी रास्ते,
जहां हम-तुम साथ-साथ हमेशा `रंगे हृदय' पकड़े गए थे,
मुझसे सवाल करते हैं,
अकेले, तुम अकेले, कहां गई वह...
जिसके साथ तुम ज़िंदा थे भरपूर।
अब उदास मुंह लिए कैसे फिर सकते हो?
राहों ने मेरे तनहा क़दम संभालने से इनकार कर दिया है।
अल्बर्ट हॉल में संरक्षित ममी ने पूछा--
तुम वहां, बाहर, क्या करते हो...
बिना प्रेम का लेप लगाए,
वक्त की दीमक तुम्हें खा लेगी, बेतरह!
शाम के तारे,
दोपहर का ताप
और सुबह का गुलाल...
नहीं सहा जाता कुछ भी मुझसे
न ही मुझे स्वीकार करता है कोई बगैर तुम्हारे...
वसंत,
तुम्हारे न होने को मंजूर कर लिया है मैंने.
इन दिशाओं से, रास्तों और राहगीरों से भी कह दो
मान लें,
हम-तुम कभी साथ नहीं चले,
नहीं रहे!
Chandiduttshukla @ 08824696345
खग-मृग से उन्होंने क्या पूछा,
क्या सुना जवाब
पर व्याकुल, एकाकी मैं...
तलाशता रहा तमाम ठीहे,जहां, कोई खग दिखे,
चोंच में तिनका या चिट्ठियां दबाए...
पर, नदारद सब के सब
पक्षिशास्त्र की किताबों में शामिल ब्योरों बीच कहीं गुटरगूं करते होंगे।
मृग,
`जू' में तालियां बचाते बच्चों के कंकड़ों और व्यर्थ के कुरकुरे संग कन्फ्यूज़ हैं...
सो, खग-मृग के बिना,
मृ़गनयनी तुम्हारे न होने की रपट मैं कहां दर्ज कराता,
किससे पूछता सवाल
बिरला मंदिर के ऐन सामने, कौन-सा है असली पंडित पावभाजी वाला...
यह जरूर तलाशता था..., तभी चिल्लाया कानों के ठीक बगल कोई...
कहो कहां है तुम्हारी वसंतलता...
कहां गई वो मृगनयनी!
मैं निस्तब्ध, अवाक्...
निरुत्तर हूं,
उन शहरों के सभी रास्ते,
जहां हम-तुम साथ-साथ हमेशा `रंगे हृदय' पकड़े गए थे,
मुझसे सवाल करते हैं,
अकेले, तुम अकेले, कहां गई वह...
जिसके साथ तुम ज़िंदा थे भरपूर।
अब उदास मुंह लिए कैसे फिर सकते हो?
राहों ने मेरे तनहा क़दम संभालने से इनकार कर दिया है।
अल्बर्ट हॉल में संरक्षित ममी ने पूछा--
तुम वहां, बाहर, क्या करते हो...
बिना प्रेम का लेप लगाए,
वक्त की दीमक तुम्हें खा लेगी, बेतरह!
शाम के तारे,
दोपहर का ताप
और सुबह का गुलाल...
नहीं सहा जाता कुछ भी मुझसे
न ही मुझे स्वीकार करता है कोई बगैर तुम्हारे...
वसंत,
तुम्हारे न होने को मंजूर कर लिया है मैंने.
इन दिशाओं से, रास्तों और राहगीरों से भी कह दो
मान लें,
हम-तुम कभी साथ नहीं चले,
नहीं रहे!
Chandiduttshukla @ 08824696345
1 comments:
बिम्बों और प्रतीकों के अति सहज प्रयोग से सजी संवरी अति गहन अभिव्यक्ति ....शुभकामनायें !!
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