हिमाचल प्रदेश के बैजनाथ में कभी नहीं जलता रावण का पुतला

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  • Thursday, October 6, 2011
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  • DR. ANWER JAMAL
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  • देश के अन्य हिस्सों की तरह हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले के प्राचीन धार्मिक कस्बा बैजनाथ में दशहरा के दिन रावण का पुतला नहीं जलाया जाता है। स्थानीय लोगों का विश्वास है कि ऐसा करना दुर्भाग्य और भगवान शिव के कोप को आमंत्रित करना है।

    हिमाचल के मंदिरों की अधिकार प्राप्त उच्चस्तरीय समिति के सदस्य सचिव प्रेम प्रसाद पंडित के अनुसार इस स्थान पर रावण ने भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए वर्षों तपस्या की थी। इसलिए यहां उसका पुतला जलाकर उत्सव मनाने का अर्थ है शिव का कोपभाजन बनना।
    यह कस्बा जिला मुख्यालय कांगड़ा से लगभग 60 किलोमीटर की दूरी पर है। पंडित ने कहा कि दशहरा के दिन यहां का बाजार बंद रहता है और लोग पटाखे और मिठाइयां नहीं खरीदते हैं। 13वीं शताब्दी में निर्मित बैजनाथ मंदिर के एक पुजारी ने कहा कि 

    भगवान शिव के प्रति रावण की भक्ति से यहां के लोग इतने अभिभूत हैं कि वे रावण का पुतला जलाना नहीं चाहते।

    उन्होंने कहा कि स्थानीय लोगों का विश्वास है कि रावण का पुतला जलाने का अर्थ दुर्भाग्य को बुलावा देना है। इसी कस्बे में जन्मे और पले-बढ़े 65 वर्षीय रमेश सूद ने कहा कि उन्होंने कभी दशहरा नहीं मनाया है। उन्होंने कहा कि चूंकि हमारे पूर्वज दशहरा नहीं मनाते थे इसलिए हम भी नहीं मनाते हैं। हमारे बच्चे और उनके भी बच्चे इस परम्परा को निभा रहे हैं।


    हिंदू धार्मिक ग्रंथों के अनुसार रावण ने भगवान राम की पत्नी सीता का अपहरण कर लिया था। राम ने रावण से युद्ध कर सीता को मुक्त कराया था। उन्होंने रावण को पराजित कर उसका वध किया था। इसी घटना की याद ताजा करने के लिए देश के कई हिस्सों में रावण, उसके भाई कुम्भकर्ण और मेघनाद के पुतले जलाए जाते हैं।
    -------------------
    • कमाल है पापियों का सम्मान करने वाले भी यहाँ बसते हैं और उनका समर्थन करने वाले भी यहाँ धार्मिक ही कहलाते हैं .
              इन्हें धर्म का कुछ पता होता तो ये ऐसा न करते .

    6 comments:

    shyam gupta said...

    जमाल जी----आप भ्रम में हैं उस समय रावण शिव भक्त विद्वान था ....अतातायी नहीं ...सीताहरण काफी बाद की बात है ....यही तो इस संस्कृति/ धर्म की खासियत है ...ज्ञान का आदर करने वाली....पर अनाचारी का नहीं ...विचारों में लोकतांत्रिक व्यवस्था....
    ----वैसे भी पुतला जलाना बहुत बाद की प्रथा है , आज की ...राम के समय की नहीं ...शिव के मूल आदि क्षेत्रों में प्रचलित नहीं है ....

    DR. ANWER JAMAL said...

    ...तो फिर अब १२ लाख ९६ हजार साल बाद रावण कुछ भी नहीं है, न नेक और न ही बद। अपने पाप पुण्य का फल खुद ही भोग रहा होगा .
    अब यहां लोग क्यों उसके नकली पुतले जलाकर पर्यावरण दूषित कर रहे हैं जबकि अपनी बुराईयां छोडने के लिए तैयार ही नहीं हैं।
    राजा रावण की मौत हमें यह याद दिलाती कि मौत सभी को आएगी और साथ केवल इंसान का किया धरा ही जाएगा।
    रावण जैसा बडा राजा न बच पाया और पाप का बोझ लेकर मर गया। न तो उसका ब्राहमण होना उसे बचा पाया और न ही उसकी शिवभक्ति उसे बचा पाई क्योंकि वह अहंकारी और अन्यायी था। आज भी जो आदमी जालिम है वह भी एक रावण ही है, उसकी पूजा पाठ और उसका नमाज रोजा लोक परलोक में उसका पूरा कल्याण न कर पाएगा।
    आदमी को चाहिए कि सत्य को झुठलाने की आदत छोड दे और अहंकार का त्याग करके धर्म को उसके शुद्ध स्रोत से ग्रहण करे, कल्याण इसी में निहित है।

    चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

    रावण एक बहुत बडे विद्वान जानी ब्राह्मण थे। उन्होंने एक गलती की तो उन्हें इतनी बडी सज़ा मिली कि हर वर्ष जलना पडता है। जबकि आज के रावण तो न जाने कितने कितने पाप करते है और जनता को रोज़ जला रहे है॥

    Anamikaghatak said...

    raavan jaise vidwaan vykti ke ek badi bhool ne unke vyaktitwa ko tahas nahas kar diya anythaa waha wastav me pujniy hi hai....khaas kar aaj ke halat pariprekshy me to waha devtuly hai

    shyam gupta said...

    ----बिलकुल सही है... तो फिर सारे प्रदर्शन ही बंद हो जाने चाहिए....ताजिये निकालना भी.... गोआ फेस्टीवल में अनावश्यक धन -नाश, क्रिशमस ट्री सजावट में धन वर्वादी ,दुर्गा देवी के बड़े बड़े पंडाल व उनका जल विसर्जन ..गणपति का प्रतिवर्ष करोड़ों फूंक कर जल विसर्जन आदि .....

    DR. ANWER JAMAL said...

    हमें धर्म के सच्चे बोध की जरूरत है .

    @ डा. श्याम गुप्ता जी ! हिंदुओं, ईसाईयों और मुसलमानों के प्रदर्शनों का आपने जिक्र किया है और कहा है कि इनमें धन का अनावश्यक नाश होता है।
    आपका कहना सही है और हमें याद रखना चाहिए कि इन तीनों ही धर्म-मतों के बुजुर्गों ने हमेशा सादा जीवन, उच्च विचार और परोपकार पर बल दिया है।
    आज इस देश में ऐसे लोग भी हैं जो भूख और कुपोषण के शिकार हो कर मर रहे हैं और ऐसे लोग भी हैं जिनके पास दवा और इलाज तक के लिए भी पैसे नहीं हैं। इस देश में ऐसे लोग भी हैं जो कर्ज के जाल में ऐसे फंस गए हैं कि आत्महत्या के सिवाय उससे निकलने का रास्ता उन्हें नजर ही नहीं आता।
    इन सब जरूरतमंदों के बीच में ऐसे प्रदर्शनों में अरबों-खरबों रूपया उडा देना सिर्फ यह बताना है कि हम कितने संवेदनहीन हैं और खासकर तब, जबकि इन्हें आयोजित करने के लिए इन धर्मों के ऋषियों और बडे बुजुर्गों ने कभी नहीं कहा . इस तरह के आयोजनों से पब्लिक आम तौर पर परेशान होती है और जगह जगह दंगे भी होते हैं और विभिन्न समुदायों के लोग हर साल मारे जाते हैं, जिससे राष्ट्रीय एकता ही खतरे में पड जाती है और वेद-गीता, कुरआन और बाइबिल में कहीं भी नहीं लिखा है कि हमें ये आयोजन अवश्य ही करने चाहिएं।
    ये आयोजन बताते हैं कि हम धर्म के मार्ग पर नहीं हैं, हम अपने महापुरूषों के मार्ग पर भी नहीं हैं बल्कि हम केवल अपनी इच्छा और अपनी वासना का पालन मात्र कर रहे हैं और उसी का नाम हमने धर्म रख लिया है।
    धर्म परिवर्तन का और पतन का यह वह रूप है जिसे हम कभी धर्म परिवर्तन या पतन के रूप में नहीं पहचान पाते और इसी दशा में हम मर जाते हैं।

    हमें धर्म के सच्चे बोध की जरूरत है, इस ओर चिंतन के बाद ही कल्याण संभव है।

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