कबीर के बारे में बहुत भ्रामक बातें साहित्य में और इंटरनेट पर भर दी गई हैं. अज्ञान फैलाने वाले कई आलेख कबीरधर्म में आस्था, विश्वास और श्रद्धा रखने वालों के मन को ठेस पहुँचाते हैं. यह कहा जाता है कि कबीर किसी विधवा ब्राह्मणी (किसी चरित्रहीन ब्राह्मण) की संतान थे. ऐसे आलेखों से कबीरपंथियों की सख्त असहमति स्वाभाविक है क्योंकि कबीर ऐसा विवेकी व्यक्तित्व है जो भारत को छुआछूत, जातिवाद, धर्मिक आडंबरों आदि के घातक तत्त्वों से उबारने वाला है.
कबीर की गहरी जड़ें
कबीर को सदियों हिंदी साहित्य से दूर रखा गया ताकि लोग यह वास्तविकता न जान लें कि कबीर के समय में और उससे पहले भी भारत में धर्म की एक समृद्ध परंपरा थी जो हिंदू परंपरा से अलग थी और कि भारत के सनातन धर्म वास्तव में जैन और बौध धर्म हैं. कबीरधर्म, ईसाईधर्म तथा इस्लामधर्म के मूल में बौधधर्म का मानवीय दृष्टिकोण रचा-बसा है. यह आधुनिक शोध से प्रमाणित हो चुका है. उसी धर्म की व्यापकता का ही प्रभाव है कि इस्लाम की पृष्ठभूमि के बावजूद कबीर भारत के मूलनिवासियों के हृदय में ठीक वैसे बस चुके हैं जैसे बुद्ध.
कबीर जुलाहा कोरी परिवार से हैं. स्पष्ट है कि कबीर कोरी परिवार में जन्मे थे जो छुआछूत आधारित ग़रीबी और गुलामी से पीड़ित था और उससे निकलने के लिए उसने इस्लाम धर्म अपनाया था.
कबीर की छवि पर छींटे
यह तथ्य है कि कबीर के पुरखे इस्लाम अपना चुके थे. इसलिए कबीर के संदर्भ में या उनकी वाणी में जहाँ कहीं हिंदू देवी-देवताओं या हिंदू आचार्यों का उल्लेख आता है उसे संदेह की दृष्टि से देखना आवश्यक हो जाता है. पिछले दिनों कबीर के जीवन पर बनी एक एनिमेटिड फिल्म देखी जिसमें विष्णु-लक्ष्मी की कथा को शरारतपूर्ण तरीके से जोड़ा गया था.
आज भी इस बात पर बहस होती है कि कबीर लहरतारा तालाब के किनारे मिले या गंगा के तट पर. कबीर के गुरु पर विवाद खड़े किए गए. रामानंद नामी ब्राह्मण को उनके गुरु के रूप में खड़ा कर दिया गया. उस कथा के इतने वर्शन हैं कि उन पर अविश्वास करना सरल हो जाता है. वे किसी विधवा ब्राह्मणी की संतान थे या नूर अली के ही घर पैदा हुए इस विषय को रेखांकित करने की कोशिश चलती रहती है. इसमें अब संदेह नहीं रह गया है कि कबीर नूर अली और नीमा की ही संतान थे और उनके जन्म की शेष कहानियाँ उनके व्यक्तित्व से चिढ़ कर ठूँसे गए प्रक्षिप्त अंश हैं.
कबीर का विशेष कार्य - निर्वाण
निर्वाण शब्द का अर्थ है फूँक मार कर उड़ा देना. मोटे तौर पर इसका अर्थ है मन के स्वरूप को समझ कर उसे छोड़ देना और मन पर पड़े संस्कारों और उनसे बनते विचारों को माया जान कर उन्हें महत्व न देना. इन संस्कारों में एक कर्म फिलॉसफी आधारित पुनर्जन्म का सिद्धांत भी है. संतमत के अनुसार निर्वाण का मतलब कर्म फिलॉसफी आधारित पुनर्जन्म के विचार से पूरी तरह छुटकारा है. कबीर की आवागमन से निकलने की बात करना और यह कहना कि ‘साधो कर्ता करम से न्यारा’ इसी ओर संकेत करता है.
तत्त्वज्ञान कहता है कि जो भी है इस जन्म में है और इसी क्षण में है. बुद्ध और कबीर ‘अब’ और ‘यहीं’ की बात करते हैं. जन्मों की नहीं. वे चतुर ज्ञानी और विवेकी पुरुष हैं, सदाचारी हैं और सद्गुणों से पूर्ण हैं. कबीर के ज्ञान पर ध्यान रखें उनके जीवन संघर्ष पर ध्यान केंद्रित करें. उन्होंने सामाजिक, धार्मिक तथा मानसिक ग़ुलामी की ज़जीरों को कैसे काटा, यह देखें.
एक तथ्य और है कि कबीर द्वारा चलाए संतमत की शिक्षाएँ और साधन पद्धतियाँ बौधधर्म से पूरी तरह मेल खाती हैं. कबीर ने अपनी नीयत से जो कार्य किया वह डॉ. भीमराव अंबेडकर के साहित्य में अब शुद्ध रूप से उपलब्ध है. उल्लेखनीय है कि डॉ अंबेडकर स्वयं कबीरपंथी परिवार से थे.
चमत्कारों, रोचक और भयानक कथाओं से परे कबीर का सादा-सा जीवन इस प्रकार है:-
कबीर का जीवन
बुद्ध के बाद कबीर भारत के महानतम धार्मिक व्यक्तित्व हैं. वे सुरत-शब्द योग के प्रवर्तक और उसके सिद्ध हैं. वे तत्त्वज्ञानी हैं. एक ही चेतन तत्त्व को मानते हैं और कर्मकाण्ड के घोर विरोधी हैं. अवतार, मूर्त्ति, रोज़ा, ईद, मस्जिद, मंदिर आदि को वे महत्व नहीं देते हैं. भारत में धर्म, भाषा या संस्कृति किसी की भी चर्चा कबीर की चर्चा के बिना अधूरी होती है.
उनका परिवार कोरी जाति से था जो हिंदुओं की जातिप्रथा के कारण हुए अत्याचारों से तंग आकर मुस्लिम बना था. कबीर का जन्म नूर अली और नीमा नामक दंपति के यहाँ लहरतारा के पास सन् 1398 में हुआ और बहुत अच्छे धार्मिक वातावरण में उनका पालन-पोषण हुआ.
युवावस्था में उनका विवाह लोई से हुआ जिसने सारा जीवन इस्लाम के उसूलों के अनुसार पति की सेवा में व्यतीत कर दिया. उनकी दो संताने कमाल (पुत्र) और कमाली (पुत्री) हुईं. कमाली की गणना भारतीय महिला संतों में होती है. संतमत की तकनीकी शब्दावली में उन दिनों नारी से तात्पर्य कामना या इच्छा से रहा है और इसी अर्थ में प्रयोग होता रहा है. ऐसी प्रयुक्तियों के कारण मूर्ख पंडितों ने कबीर को नारी विरोधी घोषित कर दिया. कबीर तो हर प्रकार से नारी जाति के साथ चलने वाले सिद्ध होते हैं. उन्होंने संन्यास लेने तक की बात नहीं की. वे स्त्री-पुरुष निर्मित गृहस्थ में रहने वाले सत्पुरुष थे.
कबीर स्वयंसिद्ध अवतारी पुरूष थे जिनका ज्ञान समाज की परिस्थितियों में सहज ही स्वरूप ग्रहण कर गया. वे किसी भी धर्म, सम्प्रदाय और रूढ़ियों की परवाह किये बिना खरी बात कहते हैं. मुस्लिम समाज में रहते हुए भी जातिगत भेदभाव ने उनका पीछा नहीं छोड़ा इसी लिए उन्होंने हिंदू-मुसलमान सभी में व्याप्त जातिवाद के अज्ञान, रूढ़िवाद तथा कट्टरपंथ का खुलकर विरोध किया. उनके ऐसे स्वभाव के कारण उन्हें विद्रोही कह दिया गया जो उचित प्रतीत नहीं होता. कबीर आध्यात्मिकता से भरे हैं और जुझारू सामाजिक-धार्मिक नेता हैं.
पंडितों के विरुद्ध कबीर ने खरी-खरी कही जिससे चिढ़ कर उन्होंने कबीर की वाणी में बहुत सी प्रक्षिप्त बातें ठूँस दी हैं और कबीर की भाषा के साथ भी बहुत खिलवाड़ किया है. आज निर्णय करना कठिन है कि कबीर की शुद्ध वाणी कितनी बची है.
कबीर ने सारी आयु कपड़ा बनाने का कड़ा परिश्रम करके परिवार को पाला. सन् 1518 के आसपास कबीर ने 119 वर्ष की आयु में देह त्याग किया.
उनके ये दो शब्द उनकी विचारधारा और दर्शन को पर्याप्त रूप से इंगित करते हैं:-
(1)
आवे न जावे मरे नहीं जनमे, सोई निज पीव हमारा हो
न प्रथम जननी ने जनमो, न कोई सिरजनहारा हो
साध न सिद्ध मुनी न तपसी, न कोई करत आचारा हो
न खट दर्शन चार बरन में, न आश्रम व्यवहारा हो
न त्रिदेवा सोहं शक्ति, निराकार से पारा हो
शब्द अतीत अटल अविनाशी, क्षर अक्षर से न्यारा हो
ज्योति स्वरूप निरंजन नाहीं, ना ओम् हुंकारा हो
धरनी न गगन पवन न पानी, न रवि चंदा तारा हो
है प्रगट पर दीसत नाहीं, सत्गुरु सैन सहारा हो
कहे कबीर सर्ब ही साहब, परखो परखनहारा हो
(2)
मोको कहाँ ढूँढे रे बंदे, मैं तो तेरे पास में
न तीरथ में, न मूरत में, न ही कांद निवास में
न मंदिर में, न मस्जिद में, न काशी कैलाश में
न मैं जप में, न मैं तप में, न मैं बरत उपास में
न मैं किरिया करम में रहता, नहीं योग संन्यास में
खोजी होए तुरत मिल जाऊँ, एक पल की तलाश में
कहे कबीर सुनो भई साधो, मैं तो हूँ विश्वास में
2 comments:
कबीर भारत के महान सुधारकों में से हैं. कबीर साहब के जन्म के बारे में वर्णवादी पंडों ने जानबूझ कर भ्रम फैलाया है . इन्हीं मुफ्तखोर पंडों ने श्री रामचंद्र जी और श्री कृष्ण जी और दीगर बहुत से ऋषियों के जन्म के बारे में निहायत गलत और शर्मनाक बातें लिख रखी हैं. आपने सही कहा है कि
पंडितों के विरुद्ध कबीर ने खरी-खरी कही जिससे चिढ़ कर उन्होंने कबीर की वाणी में बहुत सी प्रक्षिप्त बातें ठूँस दी हैं और कबीर की भाषा के साथ भी बहुत खिलवाड़ किया है. आज निर्णय करना कठिन है कि कबीर की शुद्ध वाणी कितनी बची है.
बे बात की बात है...
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