दुनिया भाग रही है। हम भी भाग रहे हैं लगातार इस भागती दुनिया के पीछे। क्यों भाग रहे हैं? किसके लिए भाग रहे हैं? कुछ भी ठीक ठीक पता नहीं? लेकिन सच यही है कि भाग रहे हैं। न सोने का वक्त और न ही हँसने का। धीरे धीरे आदमी और रोबोट के अन्तर को समझना मुश्किल हो रहा है।
मुस्कुराना, हँसना, दुखी होना, रोना, आदि कुछ क्रियाएं हैं जो आदमी को जानवर या आज कल की भाषा में "रोबोट" से अलग करता है। हम मुस्कुरा तो रहे हैं लेकिन मशीनी अंदाज में जैसे रिशेप्शन पर बैठी सुन्दर बालाएं मोहक अन्दाज में मुस्कातीं हैं किसी अतिथि के आगमन पर भले उस समय उसके पेट में "दर्द" ही क्यों न हो रहा हो?
एक दिन मैं अचानक खुद को याद करने लगा कि कितने दिन हो गए जो मैं ठहाका लगाकर हँस न सका? हो सके तो आप भी गौर से सोचियेगा। वैसे ठहाका लगाकर हँसना तथाकथित "सभ्य समाज" में अच्छा माना भी नहीं जाता है। यूँ भी सड़क से लेकर संसद तक "स्वाभाविक रूप से मुस्कुराते चेहरे" अब मिलते कहाँ हैं?
हम जरूरत के हिसाब से वक्त, बेवक्त रोते भी हैं या फिर रोने का अभिनय भी करते हैं। वैसे बिना परिस्थिति और भावनाओं के रूलाने का ठीका तो "फिल्मीस्तान" के पास है जिसमें "ग्लीसरीन" के महत्वपूर्ण योग दान को नकारा नहीं जा सकता। लेकिन इस रूदन में सम्वेदना कहाँ?
सम्वेदना लायी भी कहाँ से जाय? यह कोई आयात या निर्यात करने वाली वस्तु तो है नहीं जो "अनशन" करके सरकार पर दवाब बनाकर इसे मँगाया जा सके। सम्वेदना की उपज तो मानव हृदय से होती है, चिन्तन से और उसकी जीवंतता से भी।
लेकिन इस भौतिकता की अंधी दौड़ में, जहाँ "अर्थ" के अलावा किसी चीज की प्रधानता ही नहीं है जिसके चलते हमारा जीवन लगातार "अर्थ-हीन" होता जा रहा है। किसको फुर्सत है इधर झाँकने की भी। करोड़ों लोग अवसर और संसाधन के अभाव में भूखे मर रहे हैं और कई ऐसे हैं जो संसाधन की विपुलता के कारण खाते खाते बीमार हैं। बहुत बेढब, नीरस और बेढंगी होती जा रही है ये दुनिया। लेकिन "सब चलता है" के सूत्र वाक्य से सारी उपस्थित समस्याओं का "सामान्यीकरण" करने का खतरनाक खेल बदस्तूर जारी है और आगे भी इसके ठहराव के कोई आसार नजर नहीं आते। "भोगवादी संस्कृति" पता नही हम सबको किस ओर ले जा रही है?
दार्शनिक अन्दाज में बात करना इस भारत भूमि पर उपजे प्रायः सभी लोगों की स्वाभाविक प्रवृति है। चाहे जरूरतमन्द हो या सम्पन्न आदमी, दार्शनिक अंदाज में कहते हुए मिल जाते हैं - अरे यार "कल किसने देखा है? साँसें कब रुक जाय कौन जानता?" इत्यादि। लेकिन मजे की बात है कि उसी "भबिष्यत् कल" को और सम्पन्न बनाने में सभी दिन रात हलकान हैं और अपने वर्तमान को खराब करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ते। एक दूसरे को कुचलने में भी नहीं हिचकते।
किसे खबर है अगले पल की
फिर भी सबको चिन्ता कल की
"छीन करके खाना हमारी प्रवृति है और बाँट करके खाना हमारी संस्कृति"। डार्विन के सिद्धान्त के हिसाब से आदमी का पूर्वज जानवर रहा है और जानवर छीन कर अपना हक हासिल करता है। क्या हम फिर घड़ी की सूई को उल्टी दिशा में तो नहीं घुमा रहे हैं? यदि नहीं तो हालात रोज रोज इतने बदतर क्यों? जहाँ आदमी को "आदमी" की तरह जीना भी मयस्सर नहीं हो रहा है।
आम जीवन में सुख-सुविधा अधिक से अधिक हो, इसके लिए लाखों लाख ईजाद हुए और हो भी रहे हैं। इसी कड़ी में आदमी ने "सुपर रोबोट" भी बनाया जिसे अब एक "अर्दली" की तरह बस "आर्डर" देने की जरूरत भर है और वो सारा काम कर देगा। प्रायः सब कुछ आदमी की तरह। लेकिन "भावना"? पूरी तरह से नदारद। कभी कभी सोचने को विवश हो जाता हूँ कि रोबोट बनाने तक की यात्रा करते करते कहीं आदमी खुद तो "रोबोट" नहीं बन गया? बहुत हद तक ये सच भी है और हम देख भी रहे हैं इसके प्रायोगिक प्रतिफलन को। जय-आर्यावर्त।
मुस्कुराना, हँसना, दुखी होना, रोना, आदि कुछ क्रियाएं हैं जो आदमी को जानवर या आज कल की भाषा में "रोबोट" से अलग करता है। हम मुस्कुरा तो रहे हैं लेकिन मशीनी अंदाज में जैसे रिशेप्शन पर बैठी सुन्दर बालाएं मोहक अन्दाज में मुस्कातीं हैं किसी अतिथि के आगमन पर भले उस समय उसके पेट में "दर्द" ही क्यों न हो रहा हो?
एक दिन मैं अचानक खुद को याद करने लगा कि कितने दिन हो गए जो मैं ठहाका लगाकर हँस न सका? हो सके तो आप भी गौर से सोचियेगा। वैसे ठहाका लगाकर हँसना तथाकथित "सभ्य समाज" में अच्छा माना भी नहीं जाता है। यूँ भी सड़क से लेकर संसद तक "स्वाभाविक रूप से मुस्कुराते चेहरे" अब मिलते कहाँ हैं?
हम जरूरत के हिसाब से वक्त, बेवक्त रोते भी हैं या फिर रोने का अभिनय भी करते हैं। वैसे बिना परिस्थिति और भावनाओं के रूलाने का ठीका तो "फिल्मीस्तान" के पास है जिसमें "ग्लीसरीन" के महत्वपूर्ण योग दान को नकारा नहीं जा सकता। लेकिन इस रूदन में सम्वेदना कहाँ?
सम्वेदना लायी भी कहाँ से जाय? यह कोई आयात या निर्यात करने वाली वस्तु तो है नहीं जो "अनशन" करके सरकार पर दवाब बनाकर इसे मँगाया जा सके। सम्वेदना की उपज तो मानव हृदय से होती है, चिन्तन से और उसकी जीवंतता से भी।
लेकिन इस भौतिकता की अंधी दौड़ में, जहाँ "अर्थ" के अलावा किसी चीज की प्रधानता ही नहीं है जिसके चलते हमारा जीवन लगातार "अर्थ-हीन" होता जा रहा है। किसको फुर्सत है इधर झाँकने की भी। करोड़ों लोग अवसर और संसाधन के अभाव में भूखे मर रहे हैं और कई ऐसे हैं जो संसाधन की विपुलता के कारण खाते खाते बीमार हैं। बहुत बेढब, नीरस और बेढंगी होती जा रही है ये दुनिया। लेकिन "सब चलता है" के सूत्र वाक्य से सारी उपस्थित समस्याओं का "सामान्यीकरण" करने का खतरनाक खेल बदस्तूर जारी है और आगे भी इसके ठहराव के कोई आसार नजर नहीं आते। "भोगवादी संस्कृति" पता नही हम सबको किस ओर ले जा रही है?
दार्शनिक अन्दाज में बात करना इस भारत भूमि पर उपजे प्रायः सभी लोगों की स्वाभाविक प्रवृति है। चाहे जरूरतमन्द हो या सम्पन्न आदमी, दार्शनिक अंदाज में कहते हुए मिल जाते हैं - अरे यार "कल किसने देखा है? साँसें कब रुक जाय कौन जानता?" इत्यादि। लेकिन मजे की बात है कि उसी "भबिष्यत् कल" को और सम्पन्न बनाने में सभी दिन रात हलकान हैं और अपने वर्तमान को खराब करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ते। एक दूसरे को कुचलने में भी नहीं हिचकते।
किसे खबर है अगले पल की
फिर भी सबको चिन्ता कल की
"छीन करके खाना हमारी प्रवृति है और बाँट करके खाना हमारी संस्कृति"। डार्विन के सिद्धान्त के हिसाब से आदमी का पूर्वज जानवर रहा है और जानवर छीन कर अपना हक हासिल करता है। क्या हम फिर घड़ी की सूई को उल्टी दिशा में तो नहीं घुमा रहे हैं? यदि नहीं तो हालात रोज रोज इतने बदतर क्यों? जहाँ आदमी को "आदमी" की तरह जीना भी मयस्सर नहीं हो रहा है।
आम जीवन में सुख-सुविधा अधिक से अधिक हो, इसके लिए लाखों लाख ईजाद हुए और हो भी रहे हैं। इसी कड़ी में आदमी ने "सुपर रोबोट" भी बनाया जिसे अब एक "अर्दली" की तरह बस "आर्डर" देने की जरूरत भर है और वो सारा काम कर देगा। प्रायः सब कुछ आदमी की तरह। लेकिन "भावना"? पूरी तरह से नदारद। कभी कभी सोचने को विवश हो जाता हूँ कि रोबोट बनाने तक की यात्रा करते करते कहीं आदमी खुद तो "रोबोट" नहीं बन गया? बहुत हद तक ये सच भी है और हम देख भी रहे हैं इसके प्रायोगिक प्रतिफलन को। जय-आर्यावर्त।
2 comments:
लोगों ने ऐश की ख़ातिर अपना आराम खो दिया है। सुनने में यह बात अटपटी सी लगती है मगर है बिल्कुल सच !
लोगों ने अपना लाइफ़ स्टैंडर्ड बढ़ा लिया तो केवल मर्द की आमदनी से ख़र्चा चलना मुमकिन न रहा और तब औरत को भी पैसा कमाने के लिए बाहर बुला लिया गया लेकिन इससे उसके शरीर और मन पर दो गुने से भी ज़्यादा बोझ लद गया।
औरत आज घर के काम तो करती ही है लेकिन उसे पैसे कमाने के लिए बाहर की दुनिया में काम भी करना पड़ता है। औरत का दिल अपने घर और अपने बच्चों में पड़ा रहता है। बहुत से बच्चे माँ के बाहर रहने के कारण असुरक्षित होते हैं और अप्रिय हादसों के शिकार बन जाते हैं। छोटे छोटे बच्चों का यौन शोषण करने वाले क़रीबी रिश्तेदार और घरेलू नौकर ही होते हैं। जो बच्चे इन सब हादसों से बच भी जाते हैं, वे भी माँ के आँचल से तो महरूम रहते ही हैं और एक मासूम बच्चे के लिए इससे बड़ा हादसा और कुछ भी नहीं होता । माँ रात को लौटती है थकी हुई और उसे सुबह को फिर काम पर जाना है । ऐसे में वह चाह कर भी अपने बच्चों को कुछ ज्यादा दे ही नहीं पाती।
इतिहास के साथ आज के हालात भी गवाह हैं कि जिस सभ्यता में भी औरत को उसके बच्चों से दूर कर दिया गया । उस सभ्यता के नागरिकों का चरित्र कमज़ोर हो गया और जिस सभ्यता के नागरिकों में अच्छे गुणों का अभाव हो जाता है वह बर्बाद हो जाती है ।
डायना बनने की चाह में औरतें बन गईं डायन Vampire
बहुत खूब कहा आपने जमाल भाई - हार्दिक धन्यवाद.
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
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