विज्ञान के युग में कुर्बानी पर ऐतराज़ क्यों ?

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  • Saturday, November 5, 2011
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  • DR. ANWER JAMAL
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  • विज्ञान के युग में कुर्बानी पर ऐतराज़ क्यों ?, 

    अन्धविश्वासी सवालों के वैज्ञानिक जवाब ! 

    भूमिका
    इन्सान को जीने के लिए संघर्ष करना पड़ता है, जीने के लिए उसे साधन जुटाने पड़ते हैं। इन साधनों में भोजन इन्सान की बुनियादी ज़रूरत है, न सिर्फ़ एक इन्सान के लिए बल्कि पूरे समाज के लिए, सारे संसार के लिए। सारी दुनिया के लिए इन्सान के लिए भोजन व्यवस्था सदा से ही ‘धर्म‘ का विषय रहा है। बहुत से दार्शनिकों ने भी इसके विषय में अपने विचार दुनिया के सामने रखे। दार्शनिक प्रायः सीमित इलाके के लोगों की समस्याओं से परिचित होते हैं और उनकी बातें बहुत थोड़े समय तक ही अमल में लाई जा सकती हैं। उस पैदा करने वाले एक रब के अलावा के कोई भी नहीं है जो सारे इन्सानों की ज़रूरतों को वास्तव में जानता हो। भोजन के संबंध में दार्शनिकों के विचारों के तुलनात्मक अध्ययन से भी यही साबित होता है। इस्लाम मानव के लिए ईश्वरीय विधान है जो मानव जाति की हरेक समस्या का व्यवहारिक हल पेश करता है।
    इस्लाम पर आपत्तियां वास्तव में ज्ञान-विज्ञान से अन्जान होने के कारण ही की जाती हैं या फिर उनके पीछे हठ और दुराग्रह पाया जाता है। ‘कुरबानी और हज‘ पर किए जाने वाले ऐतराज़ भी अज्ञान और अहंकार की उपज मात्र हैं, जिनसे यह पता चलता है कि ऐतराज़ करने वाले का मन आज के वैज्ञानिक युग में भी अंधविश्वास और अज्ञान से मुक्त नहीं हो सका है।
    मौलाना वहीदुद्दीन ख़ान साहब ने इस बात को स्पष्ट करने के लिए सभी ज़रूरी वैज्ञानिक तथ्य और तर्क अपने इस लेख में पाठकों के सामने रख दिए हैं। यह लेख अलरिसाला उर्दू,  दिल्ली के अंक दिसम्बर 2009 में प्रकाशित हो चुका है। हिन्दी पाठकों के लिए इसकी उपयोगिता को देखते इसका हिन्दी अनुवाद पेश किया जा रहा है। जिन्हें सत्य की खोज है, जो पूर्वाग्रहों से मुक्त हैं, वे इस अमूल्य ज्ञान संपदा की क़द्र करेंगे और तब वे जीवन की समस्याओं को व्यवहारिक हल पा सकेंगे।
    ऐसी हमें आशा है।                                                                    - डा. अनवर जमाल (अनुवादक)
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    The message of Eid-ul- adha 
    ईदुल-अज़्हा का पैग़ाम - Maulana Wahiduddin Khan
    रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से सहाबा ने पूछा कि ‘हे ईशदूत ! ये कुरबानियां क्या हैं ?‘

    ‘आपने जवाब दिया कि तुम्हारे बाप इबराहीम की परंपरा है‘
    (मुस्नद अहमद, जिल्द 4, पृष्ठ 368; इब्ने माजा, किताबुल-अज़ाही)
    इस हदीसे-रसूल से मालूम होता है कि ईदुल-अज़्हा की हक़ीक़त क्या है ?
    हज़रत इबराहीम के तरीक़े को प्रतीक रूप में अंजाम देकर उसको अमली ऐतबार से अपनी ज़िन्दगी में शामिल करने का संकल्प लेना।
    ईदुल-अज़्हा हर साल माह ज़िल-हिज्जा की नियत तारीख़ों में दोहराई जाती है। वह दरअस्ल हज की विश्व व्यापी इबादत का हिस्सा है। हज पूरे अर्थों में, हज़रत इबराहीम की ज़िन्दगी का प्रतीकात्मक प्रदर्शन (Symbolic performance) है।
    हज़रत इबराहीम का मिशन विश्व व्यापी दावती मिशन था। आपने इस मिशन के लिए एक जगह से दूसरी जगह का सफ़र किया। आपने अपने ख़ानदान वालों को इसी काम में लगाया। आपने इस दावती मिशन के सेन्टर के तौर पर काबा का निर्माण किया और उसकी परिक्रमा की। उन्होंने दो पहाड़ियों सफ़ा और मरवा के दरम्यान सई करके बताया कि दुनिया में मेरी सारी दौड़धूप परमेश्वर के लिए होगी। आपने क़ुरबानी करके अपने अन्दर उस इरादे को पैदा किया कि आप अपनी ज़िन्दगी को पूरी तरह परमेश्वर की सेवा के लिये अर्पित करेंगे। आपने अहराम की शक्ल में सादा कपड़े पहने जो इस बात का प्रतीक थे कि उनकी ज़िन्दगी पूरी तरह सादा ज़िन्दगी होगी। आपने शैतान को कंकरियां मारकर इस बात का इज़्हार किया कि वे अपने आपको शैतान के बहकावे से आखि़री हद तक बचाएंगे, वग़ैरह।
    ईदुल-अज़्हा के दिन मुसलमान अपने क़रीब के लोगों से मुलाक़ातें करते हैं। ये मुलाक़ातें मानो उस दावती सरगर्मी का नवीनीकरण हैं जो हज़रत इबराहीम ने अपने दौर की आबाद दुनिया में अंजाम दीं। इसी तरह आज हर मुसलमान को अपने ज़माने के लोगों के दरम्यान दावती ज़िम्मेदारियों को अदा करना है। फिर हर जगह के मुसलमान ‘अल्लाहु अकबर अल्लाहु अकबर , ला इलाहा इल्लल्लाहु वल्लाहु अकबर , अल्लाहु अकबर वलिल्लाहिल्हम्द‘ कहते हुए मस्जिदों में जाते हैं और वहां दो रकअत नमाज़ ईद अदा करते हैं और इमाम का ख़ुत्बा सुनते हैं। यह अपने अन्दर इस भावना को ज़िन्दा करना है कि मैं खुदा की पुकार पर लब्बैक यानि ‘हाज़िर हूं‘ कहने के लिये तैयार हूं और यह कि मेरा पूरा जीवन भक्ति और समर्पण का जीवन होगा। इसी के साथ इमाम के पीछे नमाज़ अदा करना और नमाज़ के बाद खुत्बा सुनना इस बात का संकल्प करना है कि मैं इस दुनिया में सामूहिक जीवन गुज़ारूंगा न कि अलग थलग सा जीवन।
    ईदुल-अज़्हा के दिन क़ुरबानी की जाती है। इस कुरबानी के वक़्त ये वचन अदा किये जाते हैं-
    इन्ना सलाती व नुसुकी व महयाया व ममाती लिल्लाहि रब्बिल आलमीन (अलअनआमः 161)
    अर्थात बेशक मेरी नमाज़ और मेरी कुरबानी और मेरा जीना और मेरा मरना सिर्फ़ सब लोकों के पालनहार परमेश्वर के लिए होगा।
    कुरबानी के वक़्त अदा किये जाने वाले ये अल्फ़ाज़ बताते हैं कि कुरबानी की मूल भावना या उसकी अस्ल हक़ीक़त क्या है ?
    कुरबानी दरअस्ल एक प्रतीकात्मक संकल्प (Symbolic covenant ) है। इस प्रतीकात्मक संकल्प का संबंध सारे जीवन से है। इसका मतलब यह है कि ईदुल-अज़्हा के दिन आदमी प्रतीक रूप में यह संकल्प करता है कि उसकी ज़िन्दगी पूरे अर्थों में रबरूख़ी ज़िन्दगी (God-oriented life ) होगी। वह रब की इबादत को उसके तमाम तक़ाज़ों के साथ ‘ाामिल करेगा। वह अपने आपको रब के मिशन में अर्पित करेगा। वह दुनिया में सरगर्म होगा तो रब के मिशन के लिये सरगर्म होगा। उसपर मौत आएगी तो इस हाल में आएगी कि उसने अपने आपको पूरी तरह रब के मिशन में लगा रखा था, वह पूरे अर्थों में सच्चे मालिक का बन्दा बना हुआ था। उसका जीना खुदा के लिए जीना था न कि खुद अपने लिए जीना।

    हजः एक चेतावनी   
    हज़रत अनस बिन मालिक से रिवायत है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया -‘लोगों पर एक ऐसा ज़माना आएगा जबकि मालदार लोग तफ़रीह के लिए हज करेंगे और उनके दरम्यानी दर्जे के लोग तिजारत के लिए हज करेंगे और उनके आलिम दिखावे और ‘शोहरत के लिए हज करेंगे और उनके ग़रीब लोग मांगने के लिए हज करेंगे।                                                           (कन्ज़ुल-उम्माल, रक़मुल-हदीस 12363)
    यह हदीस बहुत डरा देने वाली है। इसकी रौशनी में मौजूदा ज़माने के मुसलमानों को ख़ास तौर पर अपना जायज़ा लेना चाहिए। उन्हें ग़ौर करना चाहिए कि उनका हज इस हदीस का मिस्दाक़ तो नहीं बन गया है।
    मालदार लोग सोचें कि उनके हज में तक़वा की भावना है या सैर व तफ़रीह की ?
    आम लोग यह सोचें कि वे दीनी फ़ायदे के लिए हज करने जाते हैं या तिजारती फ़ायदे के लिए ?
     आलिम ग़ौर करें कि वे बन्दगी का सबक़ लेने के लिए बैतुल्लाह जाते हैं या अपनी पेशवायाना हैसियत को बुलन्द करने के लिए ?
    इसी तरह ग़रीब लोग सोचें कि हज को उन्होंने खुदा से मांगने का ज़रिया बनाया या इनसानों से मांगने का ज़रिया ? 
    कुरबानी और इस्लाम
    कुरआन में बताया गया है कि ‘वमा ख़लक़तुल जिन्ना वलइन्सा इल्ला लियाअ़बुदून‘ (अज़्ज़ारयातः 56)
    अर्थात इनसान और जिन्न को सिर्फ़ इसलिये पैदा किया गया है कि वे उस रब की इबादत करें।
    इबादत क्या है ?
    इसे एक हदीसे रसूल में इस तरह बयान किया गया हैः
    ‘ताअ़बुदुल्लाह क-अन्नका तराह’ (बुख़ारी व मुस्लिम)
    इस हदीसे रसूल मालूम होता है कि कुरआन के उसूल ए इबादत के मुताबिक़, इनसान के लिए ज़िन्दगी का सही तरीक़ा क्या है ?
    वह तरीक़ा यह है कि इनसान ईश्वर के वुजूद को इस तरह पा ले कि उसे हर लम्हा उसकी मौजूदगी का अहसास (Presence) होने लगे।
    उसका ‘शऊर इस मामले में इतना जाग जाए कि उसे ऐसा महसूस होने लगे कि मानो वह ईश्वर को देख रहा है। यह अहसास उसकी पूरी ज़िन्दगी को ईश्वरीय रंग में रंग दे। उसके हर क़ौल और हर अमल से ऐसा महसूस होने लगे जैसे कि वह ईश्वर को देख रहा है, जैसे कि वह जो कुछ कर रहा है, सीधे ईश्वर की निगरानी के तहत कर रहा है। इसी ज़िन्दा ‘शऊर के साथ ज़िन्दगी गुज़ारने का नाम इबादत है। यह दर्जा किसी आदमी को सिर्फ़ उस वक़्त मिलता है जबकि उसने ईश्वर को अपना एकमात्र मक़सद (Pillars) बना लिया हो।

    इस्लाम के पांच स्तम्भ
    इबादत का ताल्लुक़ इनसान की पूरी ज़िन्दगी से है। उनमें से पांच चीज़ें बुनियादी अहमियत रखती हैं। पैग़म्बर ए इस्लाम स. ने फ़रमाया- ‘इस्लाम की बुनियाद पांच चीज़ों पर क़ायम है। इस बात की गवाही देना कि एक परमेश्वर के सिवाय कोई वंदनीय-उपासनीय नहीं है और मुहम्मद परमेश्वर के भक्त और दूत हैं और नमाज़ क़ायम करना और ज़कात अदा करना और हज पूरा करना और रमज़ान के रोज़े रखना।
    ये मानो पांच सुतून (Pillars) हैं जिनके ऊपर इस्लाम की इमारत खड़ी होती है। इमारत एक दिखाई देने वाली चीज़ है। इस हदीस में इमारती ढांचे को बतौर मिसाल पेश करते हुए इस्लाम की हक़ीक़त को बताया गया है। जिस तरह सुतूनों के बिना कोई इमारत खड़ी नहीं होती, इसी तरह इन पांच अरकान के बिना इस्लाम की स्थापना भी नहीं होती। इस्लाम को क़ायम करने का मतलब यह है कि इन पांच सुतूनों को ज़िन्दगी में क़ायम किया जाए।
    इस्लाम के इन पांच अरकान की एक भावना है और एक उसका रूप है। इसमें शक /नहीं है कि अस्ल अहमियत हमेशा भावना की होती है लेकिन उसका रूप भी यक़ीनी तौर पर ज़रूरी है। जिस तरह जिस्म के बिना रूह नहीं उसी तरह रूप के बिना इस्लाम भी नहीं। इस मामले में भी भावना का ख़याल रखना बहुत ज़रूरी है लेकिन यह बात रूप के साथ हो सकता है, बिना रूप के नहीं।

    एकेश्वरवाद
    इन स्तम्भों में से पहला रूक्न कलिमा ए तौहीद है। इस कलिमे का एक फ़ॉर्म है और उसी के साथ उसकी एक स्पिरिट है। उसका फ़ॉर्म यह है कि आपर अरबी के निश्चित अल्फ़ाज़ यानि कलिमा ए शहादत  को अपनी ज़बान से अदा करें। कलिमे की स्पिरिट मारिफ़त है यानि ख़ुदा को दरयाफ़्त के दर्जे में पा लेना। कलिमा ए तौहीद की वही अदाएगी मौतबर है जो मारिफ़त की बुनियाद पर हो। मारिफ़त के बग़ैर कलिमा पढ़ना सिर्फ़ कुछ अरबी अल्फ़ाज़ का उच्चारण है। वह वास्तव में कलिमा ए तौहीद नहीं है।
    यूनान के पुराने फ़िलॉस्फ़र आर्किमिडीज़ को यह जुस्तजू थी कि किश्ती पानी के ऊपर कैसे तैरती है? वह इसकी तलाश में था। एक दिन वह पानी के हौज़ में लेटा हुआ नहा रहा था। अचानक उसे फ़ितरत के क़ानून की दरयाफ़्त हुई जिसे उत्प्लावन का सिद्धांत कहा जाता है। उस वक़्त  उसके अन्दर रोमांच की कैफ़ियत पैदा हुई। वह अचानक हौज़ से निकला और यह कहता हुआ भागा कि ‘मैंने पा लिया‘, ‘मैंने पा लिया‘ (Eureka, Eureka).
    इस मिसाल से समझा जा सकता है कि कलिमा की अदायगी क्या है ? कलिमा ए तौहीद की अदायगी दरअस्ल अंदरूनी मारिफ़त का ऐलान व इज़्हार है। यह हुक्म बेशक इस्लाम के अरकान में प्राथमिक हैसियत रखता है लेकिन यह अहमियत उसकी अंदरूनी मारिफ़त की बुनियाद पर है, न कि सिर्फ़ ज़बानी उच्चारण के आधार पर।

    नमाज़
    इस्लाम का दूसरा रूक्न नमाज़ है। दूसरे अरकान की तरह नमाज़ का भी एक फ़ॉर्म है। जैसा कि मालूम है यह फ़ॉर्म क़ियाम और रूकूअ़ और सज्दों पर आधारित है। इसी के साथ नमाज़ की एक स्पिरिट है, वह स्पिरिट सरेंडर(Surrender) है यानि अपने आपको
    पूरी तरह खुदा के हवाले कर देना। खुदा को पूरे अर्थों में अपने ध्यान का केन्द्र बना लेना। पूरी तरह रबरूख़ी ज़िन्दगी अख्तियार कर लेना। इसी भावना का दूसरा नाम कुरआन में ज़िक्र ए कसीर (अहज़ाबः 41) है यानि खुदा को बहुत ज़्यादा याद करते हुए ज़िन्दगी गुज़ारना। नमाज़ का मक़सद भी क़ुरआन में ज़ि़क्र बताया गया है। (ताहाः 14) ज़ि़क्र का मतलब रस्मी तौर पर सिर्फ़ किसी क़िस्म की तस्बीह पढ़ना नहीं बल्कि हर मौक़े पर सच्चे अहसास के साथ खुदा को याद करते रहना है।
    आदमी जब दुनिया में ज़िन्दगी गुज़ारता है तो वह मुख्तलिफ़ क़िस्म के निरीक्षण और अनुभवों से गुज़रता है। उस वक़्त  उसके अन्दर उसके वह चीज़ पैदा होना चाहिये जिसे कुरआन में ‘तवस्सुम‘ (अलहिज्रः 75) कहा गया है यानि हर दुनियावी तजर्बे को खुदाई तजर्बे में कन्वर्ट करते रहना। हर चीज़ से दिव्य पोषण हासिल करते रहना। हक़ीक़ी नमाज़ वही है जो आदमी के अन्दर यह ज़हन पैदा कर दे कि वह हर चीज़ से अपने लिये तवस्सुम की ग़िज़ा हासिल करता रहे।

    रोज़ा़
    इस्लाम के अरकान में से तीसरा रूक्न रोज़ा है। रोज़े का फ़ॉर्म यह है कि आदमी सुबह से ‘शाम  तक खाना पीना छोड़ दे। वह अपने दिन को भूख और प्यास की हालत में गुज़ारे। रोज़े की स्पिरिट सब्र है। हदीस में आया है कि ‘हुवश्शहरूस्सब्र‘ अर्थात रमज़ान का महीना सब्र का महीना है।
    सब्र(Patience) क्या है ?
    सब्र का मतलब यह है कि आदमी दुनिया में सेल्फ़ डिसिप्लिन (Self-dicipline) की ज़िन्दगी गुज़ारने लगे। वह अपनी ख्वाहिशों पर रोक लगाये। वह उकसाये जाने के बावजूद न भड़के। वह अपनी अना को घमण्ड न बनने दे। वह लोगों के दरम्यान नो प्रॉब्लम (No problem) इनसान बनकर रहे। सामाजिक जीवन में जब उसे कोई ‘शॉक (Shock) लगे तो वह उस ‘‘शॉक को अपने ऊपर सहे, वह उसे दूसरों तक न पहुंचने दे।
    नमाज़ के साथ जब यह भावना ‘शामिल हो जाए तब किसी आदमी की नमाज़ हक़ीक़ी नमाज़ बनेगी वर्ना हदीसे रसूल की ज़बान में उससे कह दिया जाएगा कि ‘जाओ फिर से नमाज़ पढ़ो क्योंकि तुमने नमाज़ नहीं पढ़ी‘।

    ज़कात
    इस्लाम का चैथा रूक्न ज़कात है। ज़कात का फ़ॉर्म यह है कि आदमी अपनी कमाई के एक हिस्से से अपनी ज़रूरतों को पूरा करे और अपनी कमाई का कुछ हिस्सा खुदा के हुक्म के मुताबिक़ वह दूसरे इनसानों पर ख़र्च करे। यह ज़कात का फ़ॉर्म है। ज़कात की स्पिरिट इनसान की ख़ैरख्वाही है यानि सारे इनसानों को अपना समझना। सच्चे अर्थों में इनसान दोस्त रवय्या ¼Human-friendly behaviour½ अख्तियार करना। सिर्फ़ अपने लिए जीने के बजाय सारी इनसानियत के लिए जीना। आदमी अगर ज़कात की रक़म दे दे, लेकिन दिल से वह इनसानों का ख़ैरख्वाह न बने तो उसकी ज़कात अधूरी ज़कात मानी जाएगी। ऐसे आदमी की ज़कात पूरे अर्थों में ज़कात नहीं होगी।
    हज
    इस्लामी अरकान में पांचवा रूक्न हज है। हज के शाब्दिक  अर्थ हैं ‘इरादा करके एक जगह से दूसरी जगह जाना‘। शरीअत की ज़बान में, हज से तात्पर्य वह इबादती सफ़र है जिसमें आदमी अपने वतन से निकलकर मक्का जाता है और वहां माह ज़िलहिज्जा की नियत तारीख़ों में हज की रस्में अदा करता है और वह खुदा के नाम पर जानवर को कुरबान करता है। यह हज का फ़ॉर्म है। हज की स्पिरिट कुरबानी ¼Sacrifice½ है। हज का फ़ॉर्म और हज की स्पिरिट दोनों जब किसी की ज़िन्दगी में इकठ्ठा हों तो वह हज की इबादत करने वाला क़रार पाता है।
    हज के दौरान मिना के मक़ाम पर तमाम हाजी जानवर की कुरबानी पेश करते हैं। इन्हीं तारीख़ों में दुनिया भर में मुख्तलिफ़ जगहों पर मुसलमान ईदुल-अज़्हा मनाते हैं। ईदुल-अज़्हा मानो हज की इबादत में एक क़िस्म की आंशिक शिरकत है। ईदुल-अज़्हा के ज़रिये तमाम दुनिया के मुसलमान मक्का में किये जाने वाले हज के साथ अपनी वाबस्तगी का इज़्हार करते हैं।
    पैग़म्बरे इस्लाम स. से पूछा गया कि ऐ खुदा के रसूल ! ये कुरबानियां क्या हैं ?
    आपने फ़रमाया कि तुम्हारे बाप इबराहीम की सुन्नत है। इस हदीस से मालूम होता है कि हज के ज़माने में जो कुरबानी दी जाती है, वह उस तरीक़े पर अमल करने के लिए होती है जिसका नमूना हज़रत इबराहीम ने क़ायम किया था।
    इसलिये  हज और कुरबानी की हक़ीक़त को जानने के लिए ज़रूरी है कि इस पहलू से पैग़म्बरे खुदा हज़रत इबराहीम की ज़िन्दगी का अध्ययन किया जाए। इस अध्ययन से न सिर्फ़ यह होगा कि हमें हज और कुरबानी की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का ज्ञान होगा बल्कि इसकी अस्ल हक़ीक़त को समझना भी हमारे लिए मुम्किन हो जाएगा। हज या ईदुल-अज़्हा में कुरबानी दरअस्ल हज़रत इबराहीम की सुन्नत को दोबारा ज़िन्दा करने का संकल्प है। इसलिए ज़रूरी है कि हज़रत इबराहीम की ज़िन्दगी की रौशनी में कुरबानी की हक़ीक़त को समझने की कोशिश की जाए।
       
    ज़िब्हे अज़ीम
        कुरआन की 37 वीं सूरा में हज़रत इबराहीम के वाक़ये का ज़िक्र है। आपने अपने सपने के अनुसार अपने बेटे इस्माईल को ज़िब्ह करने के लिए ज़मीन पर लिटा दिया। उस वक़्त अल्लाह तआला की तरफ़ फ़रिश्ते ने बताया कि तुम्हारी कुरबानी कुबूल हो गई। अब तुम बेटे के बदले एक दुम्बा ज़िब्ह कर दो। सो आपने ऐसा ही किया। उस मौक़े पर कुरआन में यह आयत आई है- ‘वफ़दैनाहु बिज़िब्हिन अज़ीम‘ (अस्साफ़्फ़ात  107) यानि हमने इस्माईल को एक महान कुरबानी के ज़रिये बचा लिया।
    इस आयत में ज़िब्ह अज़ीम (महान कुरबानी) का लफ़्ज़ इस्माईल के लिये आया है, न कि दुम्बे के लिये। दुम्बे को हज़रत इबराहीम ने फ़िदया के तौर पर ज़िब्ह किया और इस्माईल को एक ज़्यादा महान कुरबानी के लिये चुन लिया गया। यह ज़्यादा महान कुरबानी क्या थी ?, वह यह थी कि इसके बाद इस्माईल को अपनी मां हाजरा के साथ मक्का के रेगिस्तान में आबाद कर दिया गया ताकि उनके ज़रिये से एक नई नस्ल तैयार हो। उस वक़्त यह इलाक़ा सिर्फ़ रेगिस्तान की हैसियत रखता था। वहां जीवन के साधनों में से कोई चीज़ मौजूद न थी। इसलिये इसे कुरआन में ‘ज़िब्हे अज़ीम‘ का दर्जा दिया गया।
        यह अज़ीम कुरबानी अल्लाह तआला का एक मंसूबा था, जिसे इस्माईल के ज़रिये अरब के रेगिस्तान में अमल में लाया गया। कुरआन (इबराहीमः 37) में इस वाक़ये का ज़िक्र सूक्ष्म इशारे के तौर पर आया है और हदीस में इसका ज़ि़क्र विस्तार के साथ मिलता है।
        हाजरा पैग़म्बर की पत्नी थीं। उनसे एक औलाद पैदा हुई जिसका नाम इस्माईल रखा गया। एक खुदाई मंसूबे के तहत हज़रत इबराहीम ने हाजरा और उनके छोटे बच्चे इस्माईल को अरब में मक्का के एक मक़ाम पर ले जाकर बसा दिया जो उस वक़्त बिल्कुल ग़ैरआबाद था। इस वाक़ये के बारे में कुरआन में यह संक्षिप्त हवाला मिलता है-
        ‘‘और जब इबराहीम ने कहा, ऐ मेरे रब, इस शहर को अम्न वाला बना और मुझे और मेरी औलाद को इससे दूर रख कि हम मूर्तिपूजा करें। ऐ मेरे रब, इन मूर्तियों ने बहुत लोगों को गुमराह कर दिया। सो जिसने मेरा अनुसरण किया वह मेरा है और जिसने मेरा कहा न माना तो तू बख्शने वाला, मेहरबान है। ऐ हमारे रब, मैंने अपनी औलाद को एक बिना खेती की वादी में तेरे आदरणीय घर के पास बसाया है। ऐ हमारे रब, ताकि वह नमाज़ क़ायम करें। सो तू लोगों के दिल उनकी तरफ़ माइल कर दे और उन्हें फलों की रोज़ी अता फ़रमा ताकि वे शुक्र करें‘‘- (इबराहीम  35-37)
        हाजरा के बारे में कुरआन में सिर्फ़ सूक्ष्म इशारा आया है लेकिन हदीस की मशहूर किताब सही बुख़ारी में हाजरा के बारे में तफ़्सीली रिवायत मौजूद है। यह रिवायत यहां नक़्ल की जाती है-
        ‘‘अब्दुल्लाह बिन अब्बास कहते हैं कि औरतों में सबसे पहले हाजरा ने कमरपट्टा बांधा ताकि साराह को उनके बारे में ख़बर न हो सके। फिर इबराहीम हाजरा और उनके बच्चे इस्माईल को मक्का में ले आये। उस वक़्त हाजरा इस्माईल को दूध पिलाती थीं। इबराहीम ने उन दोनों को मस्जिद के ऊपरी हिस्से में एक बड़े पेड़ के नीचे बिठा दिया, जहां ज़मज़म है। उस वक़्त मक्का में एक आदमी भी मौजूद न था और न ही वहां पानी था। इबराहीम ने खजूर का एक थैला और पानी की एक मशक वहां रख दी और खुद वहां से रवाना हुए। हाजरा उनके पीछे निकलीं और कहा कि ऐ इबराहीम, हमें इस वादी में छोड़कर आप कहां जा रहे हैं, जहां न कोई इनसान है और न कोई और चीज़ ? हाजरा ने यह बात इबराहीम अलैहिस्सलाम से कई बार कही और इबराहीम ने हाजरा की बात पर कोई ध्यान नहीं दिया। हाजरा ने इबराहीम से कहा कि क्या अल्लाह ने आपको इसका हुक्म दिया है ? इबराहीम ने कहा-‘हां‘। हाजरा ने कहा- ‘फिर तो अल्लाह हमें नष्ट न करेगा।‘ हाजरा लौट आईं। इबराहीम जाने लगे। यहां तक कि जब वह मक़ाम ए सनिया पर पहुंचे जहां से वह दिखाई नहीं देते थे तो उन्होंने अपना रूख़ उधर किया जहां अब काबा है और अपने दोनों हाथ उठाकर यह दुआ की कि ‘ऐ हमारे रब ! मैंने अपनी औलाद को एक ऐसी वादी में बसाया है जहां कुछ नहीं उगता, यहां तक कि आप दुआ करते हुए लफ़्ज़ ‘यश्कुरून‘ तक पहुंचे।
        हाजरा इस्माईल को दूध पिलातीं और मशक में से पानी पीतीं। यहां तक कि जब मशक का पानी ख़तम हो गया तो वह प्यासी हुईं और उनके बेटे को भी प्यास लगी। उन्होंने बेटे की तरफ़ देखा वह प्यास से बेचैन था। बेटे की इस हालत को देखकर वह मजबूर होकर निकलीं। उन्होंने सबसे क़रीब पहाड़ ‘सफ़ा‘ को पाया। सो वह पहाड़ पर चढ़ीं और वादी की तरफ़ देखने लगीं कि कोई आदमी नज़र आ जाये। वह किसी को न देख सकीं। वह सफ़ा से उतरीं। यहां तक कि जब वह वादी तक पहुंची तो अपने कुरते का एक हिस्सा उठाया फिर वह थकावट से चूर इनसान की तरह दौड़ीं। वादी को पार करके वह ‘मरवा‘ पहाड़ पर आईं। उसपर खड़े होकर उन्होंने देखा तो कोई इनसान नज़र न आया। इस तरह सफ़ा और मरवा के दरम्यान सात चक्कर लगाये। अब्दुल्लाह बिन अब्बास कहते हैं कि अल्लाह के रसूल स. ने फ़रमाया कि लोग इन दोनों के दरम्यान ‘सई‘ करते हैं। फिर वह मरवा पर चढ़ीं। उन्होंने एक आवाज़ सुनी। वह अपने आपसे कहने लगीं कि चुप रह। फिर सुनना चाहा तो वही आवाज़ सुनी। उन्होंने कहा कि तूने अपनी आवाज़ मुझे सुना दी तू इस वक़्त हमारी मदद कर सकता है। देखा तो मक़ाम ए ज़मज़म के पास एक फ़रिश्ता है। फ़रिश्ते ने अपनी एड़ी या पंख ज़मीन पर मारा, पानी निकल आया। हाजरा उसे हौज़ की तरह बनाने लगीं और हाथ से उसके गिर्द मेंड खींचने लगीं। वह पानी चुल्लू से लेकर अपनी मशक में भरतीं। वह जितना ज़्यादा पानी भरतीं, चश्मा उतना ही ज़्यादा उबलता। इब्ने अब्बास कहते हैं कि अल्लाह के रसूल स. ने फ़रमाया कि अल्लाह हाजरा पर रहम करे, अगर वह ज़मज़म को अपने हाल पर छोड़ देतीं या आपने यह फ़रमाया कि अगर वह चुल्लू भर कर पानी न लेतीं तो ज़मज़म एक बहता चश्मा होता। हाजरा ने पानी पिया और बेटे को पिलाया। फ़रिश्ते ने हाजरा से कहा कि तुम नष्ट होने का अंदेशा न करो। यह अल्लाह का घर है। यह बच्चा और इसके बाप दोनों इस घर को बनाएंगे और अल्लाह अपने घरवालों को नष्ट नहीं करता। उस वक्त घर (काबा) टीले की तरह ज़मीन से ऊंचा था। सैलाब आता और वह उसके दाएं बाएं से निकल जाता। कुछ दिनों तक हाजरा ने इसी तरह ज़िन्दगी गुज़ारी। यहां तक कि ‘जुरहुम‘ क़बीले के कुछ लोग या जुरहुम के घरवाले कदा के रास्ते से आ रहे थे। वह मक्का के निचले हिस्से में उतरे। उन्होंने वहां एक परिन्दे को देखा जो घूम रहा था। वे कहने लगे कि यह परिन्दा तो पानी पर घूमता है। हम इस वादी में रहे हैं और यहां पानी न था। उन्होंने एक या दो आदमी ख़बर लेने के लिए वहां भेजे। उन्होंने पानी देखा। वह वापस लौटकर गये और लोगों को पानी की ख़बर दी। वे लोग भी आये। अल्लाह के रसूल स. ने फ़रमाया कि हाजरा पानी के पास थीं। उन्होंने हाजरा से कहा कि क्या तुम हमें यहां ठहरने की इजाज़त देती हो ? हाजरा ने कहा कि हां लेकिन पानी पर तुम्हारा कोई हक़ नहीं। उन्होंने कहा कि हां। अब्दुल्लाह इब्ने अब्बास कहते हैं कि अल्लाह के रसूल स. ने फ़रमाया कि हाजरा खुद चाहती थीं कि यहां इनसान आबाद हों।
        उन लोगों ने यहां पर क़ियाम किया और अपने घरवालों को भी बुला भेजा, वे भी यहीं ठहरे। जब मक्का में कई घर बन गये और इस्माईल जवान हो गये और इस्माईल ने जुरहुम वालों से अरबी ज़बान सीख ली। जुरहुम के लोग उनसे मुहब्बत करने लगे तो उन्होंने अपनी एक लड़की से उनका निकाह कर दिया। हाजरा का इन्तेक़ाल हो गया। जब इस्माईल का निकाह हो चुका तो तो इबराहीम अपनी औलाद को देखने आये। उन्होंने वहां इस्माईल को नहीं पाया तो उनकी पत्नी से उनके बारे में पूछा । उसने कहा कि वह हमारे लिए रिज़्क़ की तलाश में निकले हैं। इबराहीम ने उससे उनके गुज़र-बसर और हालत के बारे में पूछा। उसने कहा कि हम तकलीफ़ में हैं। हम बहुत ज़्यादा तंगी में हैं। उसने इबराहीम से शिकायत की। इबराहीम ने कहा कि जब तुम्हारे पति आयें तो तुम उन्हें मेरा सलाम कहना और उनसे यह भी कहना  िकवह अपने दरवाज़े की चैखट बदल दें। जब इस्माईल आये, उन्होंने कुछ महसूस कर लिया था। उन्होंने कहा कि क्या तुम्हारे पास कोई आया था। उसने कहा कि हां , एक बूढ़ा आदमी आया था। उन्होंने आपके बारे में पूछा, मैंने उन्हें बताया। उन्होंने मुझसे पूछा कि हमारी गुज़र कैसे होती है ? मैंने कहा कि बड़ी तकलीफ़ और तंगी से। इस्माईल ने कहा कि क्या उन्होंने तुमसे और कुछ कहा है ? उसने कहा कि हां, उन्होंने मुझसे आपको सलाम कहा है कि यह भी कहा है कि अपने दरवाज़े की चैखट को बदल दो। इस्माईल ने कहा कि वह मेरे बाप थे। उन्होंने मुझे हुक्म दिया है कि मैं तुम्हें छोड़ दूं। तुम अपने घरवालों में चली जाओ। इस्माईल ने उसे तलाक़ दे दी और जुरहुम की एक दूसरी औरत से उन्होंने निकाह कर लिया। इबराहीम अपने मुल्क में ठहरे रहे, जिस क़दर अल्लाह ने चाहा। उसके बाद इबराहीम इस्माईल के यहां आये तो फिर उन्हें नहीं पाया। वह इस्माईल की पत्नी के पास आये और उससे इस्माईल के बारे में पूछा। उसने कहा कि वह हमारे लिये रिज़्क़ की तलाश में निकले हैं। इबराहीम ने कहा कि तुम लोग कैसे हो ? उसने कहा कि हम लोग ख़ैरियत से हैं और कुशादगी की हालत में हैं। उसने अल्लाह की तारीफ़ की। इबराहीम ने कहा कि तुम्हारा खाना क्या है ? उसने कहा कि गोश्त। इबराहीम ने कहा कि तुम क्या पीते हो ? उसने कहा कि पानी। इबराहीम ने दुआ की कि ऐ अल्लाह, तू उनके गोश्त और पानी में बरकत दे। अल्लाह के रसूल स. ने फ़रमाया कि उस वक़्त मक्का में अनाज न था और अगर वहां अनाज होता तो इबराहीम उसमें भी बरकत की दुआ करते। मक्का के अलावा किसी दूसरे मुल्क के लोग अगर गोश्त और पानी पर गुज़ारा करें तो वह उन्हें माफ़िक़ न आयेगा। इबराहीम ने कहा कि जब तुम्हारे पति आयें तो तुम उन्हें मेरा सलाम कहना और मेरी तरफ़ से उन्हें यह हुक्म देना कि वह अपने दरवाज़े की चैखट को बाक़ी रखें। सो जब इस्माईल आये तो उन्होंने कहा कि क्या तुम्हारे पास कोई आदमी आया था ? उसने कहा कि हां, हमारे पास एक अच्छी सूरत के बुज़ुर्ग आये थे और उसने आने वाले की तारीफ़ की। उन्होंने मुझसे आपके बारे में पूछा तो मैंने उन्हें बताया। उन्होंने मुझसे दोबारा हमारे गुज़र-बसर के बारे में पूछा तो मैंने उन्हें बताया कि हम ख़ैरियत से हैं। इस्माईल ने कहा कि क्या उन्होंने तुमसे कुछ और भी कहा है ? उसने कहा कि हां, उन्होंने आपको सलाम कहा है और आपको हुक्म दिया है कि आप अपने दरवाज़े की चैखट को बाक़ी रखें। इस्माईल ने कहा कि वह मेरे बाप थे तुम चैखट हो। उन्होंने मुझे हुक्म दिया है कि मैं तुम्हें अपने पास बाक़ी रखूं। फिर इबराहीम अपने मुल्क में ठहरे रहे, जब तक अल्लाह ने चाहा। उसके बाद वह आये और इस्माईल ज़मज़म से क़रीब एक पेड़ के नीचे बैठे हुए अपने तीर दुरूस्त कर रहे थे। जब इस्माईल ने इबराहीम को देखा तो वह खड़े हो गये। सो उन्होंने वही किया जो एक बाप अपने बेटे से और एक बेटा अपने बाप से करता है। इबराहीम ने कहा कि ऐ इस्माईल ! अल्लाह ने मुझे एक हुक्म दिया है। इस्माईल ने कहा कि फिर जो आपके रब ने हुक्म दिया है उसे कर डालिये। इबराहीम ने कहा कि अल्लाह ने मुझे यह हुक्म दिया है कि मैं यहां एक घर बनाऊं और इबराहीम ने उसके गिर्द एक बुलन्द टीले की तरफ़ इशारा किया। उस वक़्त  उन दोनों ने घर की बुनियाद उठाई। इस्माईल पत्थर लाते थे और इबराहीम तामीर करते थे। यहां तक कि जब दीवार ऊंची हो गई तो इस्माईल यह पत्थर लाये (हज्रे-अस्वद) लाये और उसे वहां रख दिया। इबराहीम उस पत्थर पर खड़े होकर तामीर करते थे और इस्माईल उन्हें पत्थर देते थे और वे दोनों कहते थे कि- ऐ हमारे रब, तू हमारी तरफ़ से यह कुबूल कर, बेशक तू बहुत ज़्यादा सुनने वाला और बहुत ज़्यादा जानने वाला है। सो वे दोनों तामीर करते और उस घर के इर्द-गिर्द यह कहते हुए चक्कर लगाते कि ऐ हमारे रब, तू हमारी तरफ़ से यह कुबूल कर, बेशक तू बहुत ज़्यादा सुनने वाला और बहुत ज़्यादा जानने वाला है।‘‘ (सही बुख़ारी, किताबुल-अंबिया, बाब क़ौल अल्लाह तआला वत्तख़ज़ल्लाहु इबराहीमा ख़लीला, रक़मुल-हदीस, 3364)
        हाजरा के शौहर  हज़रत इबराहीम बिन आज़र तक़रीबन साढ़े चार हज़ार साल पहले इराक़ में पैदा हुए और 175 साल की उम्र पाकर उनकी वफ़ात हुई। उन्होंने अपने ज़माने के लोगों को एकेश्वरवाद की दावत दी, लेकिन शिर्क और मूर्तिपूजा उनके ज़हन पर इतनी छाई हुई थी कि वे एकेश्वरवाद को स्वीकार न कर सके। हज़रत इबराहीम ने एक से ज़्यादा जेनरेशन्स तक लोगों को एकेश्वरवाद का पैग़ाम दिया, लेकिन उस ज़माने में बहुदेववाद एक संस्कृति के रूप धारण करके लोगों की ज़िन्दगी में इस तरह शामिल हो चुका था कि वह उससे अलग होकर सोच नहीं सकते थे। पैदा होते ही हर आदमी को शिर्क का सबक़ मिलने लगता था। यहां तक कि माहौल के असर से उसका ज़हन पूरी तरह शिर्क में कन्डीशंड हो जाता था।
        उस वक़्त  अल्लाह तआला के हुक्म से हज़रत इबराहीम ने एक नया मंसूबा बनाया। वह मंसूबा यह था कि नगरों की सभ्यता से बाहर ग़ैर आबाद रेगिस्तान में एक नस्ल तैयार की जाए। इसी मक़सद के लिए हज़रत इबराहीम ने हाजरा और इस्माईल को मक्का में आबाद किया। 
            
    हज़रत इबराहीम अलैहिस्सलाम
        हज़रत इबराहीम 1985 पू.ई. में इराक़ के प्राचीन शहर ‘उर‘ में पैदा हुए। उन्होंने 175 साल से ज़्यादा उम्र पाई। ‘उर‘ प्राचीन इराक़ की राजधानी था। यह इलाक़ा प्राचीन आबाद दुनिया, मैसोपोटामिया का केन्द्र था। हज़रत इबराहीम ने अपनी सारी बेहतरीन योग्याताओं और पूरी दर्दमंदी के साथ अपने समकालीन समाज को एकेश्वरवाद की तरफ़ बुलाया। उस वक़्त के इराक़ी बादशाह नमरूद ¼Nemrud½ तक भी अपनी दावत पहुंचाई, लेकिन कोई भी आदमी आपकी दावत को कुबूल करने के लिये तैयार न हुआ, यहां तक कि आप जब हुज्जत तमाम करने के बाद इराक़ से निकले तो आपके साथ सिर्फ़ दो इनसान थे- आपका भतीजा और आपकी पत्नी।
        हज़रत इबराहीम से पहले अलग-अलग ज़मानों और इलाक़ों में खुदा के पैग़म्बर आते रहे और लोगों को एकेश्वरवाद की दावत देते रहे, लेकिन इन सभी पैग़म्बरों के साथ एक ही सुलूक यह किया गया कि लोग उनका इन्कार करते रहे। उन्होंने पैग़म्बरों का स्वागत उनका मज़ाक़ उड़ाकर किया। (यासीनः 30)
        हज़रत इबराहीम पर पैग़म्बरों की तारीख़ का एक दौर ख़त्म हो गया। अब ज़रूरत थी कि अल्लाह की तरफ़ बुलाने की नई योजना बनाई जाए। इस योजना के लिए अल्लाह तआला ने हज़रत इबराहीम को चुना। सो हज़रत इबराहीम इराक़ से निकले और मुख्तलिफ़  शहरों   से गुज़रते हुए आखि़रकार वहां पहुंचे जहां आज मक्का आबाद है। जैसा कि सही बुख़ारी की एक रिवायत से मालूम होता है, उनका यह सफ़र जिब्रील फ़रिश्ते की रहनुमाई में तय हुआ।
    प्रतीकात्मक कुरबानी                                
    इसी दौरान यह वाक़या पेश आया कि हज़रत इब  राहीम ने ख्वाब में देखा  कि वह अपने बेटे को ज़िब्ह करने के लिये तैयार हो गये, लेकिन यह एक प्रतीकात्मक सपना था, यानि इसका मतलब यह था कि अब ईश्वरीय योजना के मुताबिक़ अपने बेटे को एकेश्वरवाद के मिशन के लिए वक्फ़ ¼Dedicate½ कर दो। एक ऐसा मिशन जो अरब के खुश्क रेगिस्तान में शुरू होने वाला था।
    कुरआन में हज़रत इबराहीम के उस ख्वाब का ज़िक्र सूरा नम्बर 37 में आया है। इसमें बताया गया है कि पैग़म्बर इबराहीम ने ख्वाब के बाद जब अपने बेटे को कुरबान करना चाहा तो उस वक़्त खुदा के फ़रिश्ते ने आपको बताया कि आप बेटे के फ़िदये के तौर पर एक दुम्बा ज़िब्ह कर दें। सो हज़रत इबराहीम ने ऐसा ही किया। इस बात को बताते हुए कुरआन में कहा गया है-‘वफ़दैनाहु बिज़िब्हिन अज़ीम‘ (अस्साफ़्फ़ातः 107)
        जैसा कि सही बुख़ारी की रिवायत से मालूम होता है, इसके बाद हज़रत इबराहीम ने अपनी पत्नी हाजरा और अपने बेटे इस्माईल को अरब के एक रेगिस्तानी मक़ाम पर आबाद कर दिया। यह वही मक़ाम था जहां अब मक्का आबाद है। इसी मक़ाम पर बाद में हज़रत इबराहीम और उनके बेटे इस्माईल ने काबा की तामीर की और हज का निज़ाम क़ायम फ़रमाया।
        हाजरा और इस्माईल को रेगिस्तान में इस तरह आबाद करने का मक़सद क्या था ?
        इसका मक़सद था एक नई नस्ल बनाना। उस ज़माने की शहरी आबादियों में बहुदेववादी संस्कृति पूरी तरह छा चुकी थी। उस माहौल में जो भी पैदा होता वह बहुदेववादी कंडिशनिंग का शिकार हो जाता। इस तरह उसके लिए एकेश्वरवाद के पैग़ाम को समझना मुमकिन न रहता। आबाद शहरों से दूर रेगिस्तान में हाजरा और इस्माईल को इसलिए बसाया गया ताकि यहां कुदरती माहौल में उनके ज़रिये एक नई नस्ल तैयार हो। एक ऐसी नस्ल जो बहुदेववादी कंडिशनिंग से पूरी तरह पाक हो। औलाद और नस्ल के ज़रिये यह काम जारी रहा, यहां तक कि बनू इस्माईल की क़ौम वजूद में आई।
        इसी क़ौम के अन्दर 570 ई. में पैग़म्बरे इस्लाम मुहम्मद बिन अब्दुल्लाह बिन अब्दुल मुत्तलिब पैदा हुए। मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को 610 ई. में अल्लाह तआला ने नबी मुक़र्रर किया। उसके बाद आपने एकेश्वरवाद के मिशन का आग़ाज़ किया। बनू इस्माईल के अन्दर से आप को वे क़ीमती लोग मिले जिन्हें ‘अस्हाबे रसूल‘ कहा जाता है। उन लोगों को साथ लेकर आपने तारीख़ में पहली बार यह किया कि एकेश्वरवाद की दावत को फ़िक्र के मरहले से आगे बढ़ाकर इन्क़लाब के मरहले तक पहुंचाया।
        हज़रत इबराहीम के ज़रिये जो महान दावती योजना अंजाम पाई, हज की इबादत गोया उसी का एक रिहर्सल है। ज़ुलहिज्जा के महीने की तारीख़ों में सारी दुनिया के मुसलमान इकठ्ठा होकर रिहर्सल के रूप में उस तारीख़ को दोहराते हैं जो हज़रत इबराहीम और उनकी औलाद के साथ पेश आई।
        इस तरह सारी दुनिया के मुसलमान हर साल अपने अंदर यह संकल्प ताज़ा करते हैं कि वे पैग़म्बर के इस नमूने को अपने हालात के मुताबिक़ लगातार दोहराते रहेंगे। हर ज़माने में वे अल्लाह की तरफ़ बुलाने के इस अमल को लगातार ज़िन्दा रखेंगे, यहां तक कि क़ियामत आ जाए।
        कुरबानी इस इबराहीमी अमल के केन्द्र में है। यह एक महान कार्य है, जिसकी कामयाब अदायगी के लिए कुरबानी की भावना लाज़िमी है। इस कुरबानी की स्पिरिट को मुसलसल तौर पर ज़िन्दा रखने के लिए हज के ज़माने में मिना में और ईदुल-अज़्हा की सूरत में तमाम दुनिया के मुसलमान अपने अपने मक़ाम पर जानवर की कुरबानी करते हैं और खुदा को गवाह बनाकर उस स्पिरिट को ज़िन्दा रखने का संकल्प करते हैं।
        हज और ईदुल-अज़्हा के मौक़े पर जानवर की जो कुरबानी की जाती है, वह दरअस्ल जिस्मानी कुरबानी की सूरत में बामक़सद कुरबानी के संकल्प के समान है। यह दरअस्ल अंदरूनी स्पिरिट का बाहरी प्रदर्शन है-
      It is an external manifestation of internal spirit .
        आदमी के अंदर पांच क़िस्म की इंद्रियां ; (senses) पाई जाती हैं। मनोवैज्ञानिक अनुसंधान से पता चला है कि जब कोई ऐसा मामला पेश आये जिसमें इनसान की तमाम इंद्रियां शामिल  हों तो वह बात इनसान के दिमाग़ में बहुत ज़्यादा गहराई के साथ बैठ जाती है। कुरबानी की स्पिरिट को अगर आदमी सिर्फ़ अमूर्त रूप में सोचे तो वह आदमी के दिमाग़ में बहुत ज़्यादा नक्श नहीं होगी। कुरबानी इसी कमी को पूरा करती है।
        जब आदमी अपने आपको वक्फ़  करने के तहत जानवर की कुरबानी करता है तो उसमें अमली तौर पर उसकी सारी इंद्रियां शामिल हो जाती हैं। वह दिमाग़ से सोचता है, वह आंख से देखता है, वह कान से सुनता है, वह हाथ से छूता है, वह कुरबानी के बाद उसके ज़ायक़े का तजर्बा भी करता है। इस तरह इस मामले में उसकी सारी इंद्रियां शामिल  हो जाती हैं। वह ज़्यादा गहराई के साथ कुरबानी की भावना को महसूस करता है। वह इस क़ाबिल हो जाता है कि कुरबानी की स्पिरिट उसके अन्दर भरपूर तौर पर दाखि़ल हो जाए। वह उसके गोश्त का और उसके खून का हिस्सा बन जाए।

    कुरबानी की हक़ीक़त
        हज या ईदुल-अज़्हा के मौक़े पर जानवर की कुरबानी दी जाती है। इस कुरबानी के दो पहलू हैं। एक इसकी स्पिरिट और दूसरे उसकी ज़ाहिरी सूरत। स्पिरिट के ऐतबार से कुरबानी एक क़िस्म का संकल्प (pledge) है। कुरबानी की सूरत में संकल्प का मतलब है व्यवहारिक संकल्प ( pledge in action), संकल्प के इस तरीक़े की अहमियत को आम तौर पर माना जाता है, इसमें किसी को भी कोई असहमति नहीं है।
        यहां इसी तरह की एक मिसाल दी जाती है, जिससे अन्दाज़ा होगा कि कुरबानी का मतलब क्या है ?
        नवम्बर 1962 ई. का वाक़या है। हिन्दुस्तान की पूर्वी सरहद पर एक पड़ौसी ताक़त के आक्रमण की वजह से ज़बर्दस्त ख़तरा पैदा हो गया था। सारे मुल्क में सनसनीख़ेज़ी की कैफ़ियत छाई हुई थी।
        उस वक़्त  क़ौम की तरफ़ से जो प्रदर्शन हुए, उसमें से एक वाक़या यह था कि अहमदाबाद के 25 हज़ार नौजवानों ने संयुक्त रूप से यह संकल्प किया कि वे मुल्क के बचाव के लिये लड़ेंगे और मुल्क के खि़लाफ़ बाहर के हमले का मुक़ाबला करेंगे, चाहे इसी राह में उन्हें अपनी जान दे देनी पड़े। यह फ़ैसला करने के बाद उन्होंने यह किया कि उनमें से हर आदमी ने अपने पास से एक-एक पैसा दिया और इस तरह 25 हज़ार पैसे जमा हो गए। इसके बाद उन्होंने उन पैसों को उस वक़्त  के प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू को सौंप दिया। पैसे देते हुए उन्होंने भारतीय प्रधानमंत्री से कहा कि ये 25 हज़ार पैसे हम 25 हज़ार नौजवानों की तरफ़ से अपने आप को आपके हवाले करने का निशान है- To give ourselves to you
    उपरोक्त नौजवानों ने अपनी कुरबानी का प्रतीकात्मक प्रदर्शन 25 हज़ार पैसों से किया। 25 हज़ार पैसे खुद अस्ल कुरबानी नहीं थे। वे अस्ल कुरबानी का सिर्फ़ एक प्रतीक (token) थे। यही मामला जानवर की कुरबानी का है। कुरबानी के अमल में जानवर की हैसियत सिर्फ़ प्रतीकात्मक है। जानवर की कुरबानी के ज़रिये एक मोमिन प्रतीकात्मक रूप से इस बात का संकल्प करता है कि वह इसी तरह अपनी ज़िन्दगी को खुदा की राह में पूरी तरह लगा देगा। इसीलिये कुरबानी के वक़्त यह कहा जाता है कि ‘अल्लाहुम्मा मिन्का व लका‘ यानि ऐ खुदा ! यह तूने ही दिया था, अब इसे तेरे ही सुपुर्द करता हूं।
        जहां तक कुरबानी की स्पिरिट का सवाल है, उसमें किसी को कोई असहमति नहीं हो सकती। यह हक़ीक़त अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृत है कि इस क़िस्म की स्पिरिट के बिना कभी कोई बड़ा काम नहीं हो सकता। अलबत्ता जहां तक कुरबानी की शक्ल का संबंध है यानि जानवर को ज़िब्ह करना, उसपर कुछ लोग शक  व शुब्हा  ज़ाहिर कर सकते हैं। उनका कहना है कि जानवर को ज़िब्ह करना तो एक बेरहमी की बात है, फिर ऐसे सक बेरहमी के अमल को एक पवित्र इबादत में क्यों शामिल किया जाता है ?
    इस मामले पर ग़ौर कीजिये तो मालूम होगा कि यह कोई हक़ीक़ी ऐतराज़ नहीं है, यह सिर्फ़ एक बेअस्ल बात है जो अंधविश्वासपूर्ण कंडिशनिंग (superstitious conditioning) के नतीजे में पैदा हुई है। इसके पीछे कोई इल्मी बुनियाद नहीं है।
    हलाल और हराम का सिद्धांत
    खाने-पीने के मामले में कुछ चीज़ें इनसान के लिए हलाल हैं और कुछ चीज़ें हराम हैं। हलाल और हराम का यह फ़र्क़ किस बुनियाद पर क़ायम होता है ?
        एक वर्ग का यह कहना है कि अस्ल हराम काम यह है कि किसी ज़िन्दगी को हलाक किया जाए। इस मामले में उनका फ़ार्मूला यह है-किसी जीव को मारना वर्जित है और किसी जीव को न मारना सबसे बड़ी नेकी है-


    Killing  a sensation is sin and vice versa .

    यह नज़रिया यक़ीनी तौर पर एक बेबुनियाद नज़रिया है। इसका सबब यह है कि मौजूदा दुनिया में यह सिरे से क़ाबिले अमल ही नहीं है, जैसा कि इस लेख में दूसरे मक़ाम पर बयान किया जाएगा। जीव को मारना हमारा अख्तियार (Option) नहीं है। इनसान जब तक ज़िन्दा है, वह जाने-अन्जाने तौर पर असंख्य जीवों को मारता रहता है। जो आदमी इस ‘पाप‘ से बचना चाहे, उसके लिए दो चीज़ों में से एक का अख्तियार  (Option) है। या तो वह खुदकुशी करके अपने आप को ख़त्म कर ले या वह एक और दुनिया बना ले जिसके नियम इस मौजूदा दुनिया के नियमों से अलग हों।
    इस्लाम में भोजन में हलाल और हराम का सिद्धांत बुनियादी तौर पर यह है कि चन्द ख़ास चीज़ों को इस्लाम में हराम क़रार दिया गया है। इनके अलावा बाक़ी तमाम चीज़ें इस्लाम में जायज़ आहार की हैसियत रखती हैं।
    हलाल और हराम का यह उसूल जो इस्लाम ने बताया है, वह प्रकृति के नियमों पर आधारित है। आज भी एक छोटे से वर्ग को छोड़कर सारी दुनिया हलाल और हराम के इसी उसूल का पालन कर रही है। यह छोटा सा वर्ग भी महज़ कहने के लिए अपना नज़रिया बताता है, वर्ना जहां तक अमल का ताल्लुक़ है, वह भी व्यवहारतः इसी प्राकृतिक नियम पर क़ायम है। मस्लन ये तमाम लोग आम तौर पर दूध और दही वग़ैरह इस्तेमाल करते हैं। पहले ये लोग इस ग़लतफ़हमी में मुब्तिला थे कि दूध और दही वग़ैरह जीव रहित आहार हैं, लेकिन अब वैज्ञानिक रूप से यह साबित हो चुका है कि ये सब पूरी तरह जैविक आहार हैं। जिस आदमी को इस बात पर शक  हो, वह किसी भी क़रीबी प्रयोगशाला ¼laboratory½ में जाकर सूक्ष्मदर्शी ¼microscope½ में दूध और दही को देख ले। एक ही नज़र में वह जान लेगा कि इस मामले में हक़ीक़त क्या है ?
    इस्लाम में हलाल जानवर और हराम जानवर का जो फ़र्क़ किया गया है, वह बुनियादी तौर पर इस उसूल पर आधारित है कि मांसाहारी जानवर हराम हैं और वे जानवर हलाल हैं जो मांसाहारी नहीं हैं। इसका कारण यह है कि जो जानवर जीवों को अपना आहार बनाते हैं, उनका मांस इनसान के लिए सेहत के ऐतबार से ठीक नहीं होता। दूसरे जानवरों का मामला यह है उनके अन्दर ख़ास कुदरती निज़ाम होता है जिसके मुताबिक़ ऐसा होता है कि ज़मीन पर उपजी हुई जो चीज़ वे खाते हैं उसे वे विशेष क्रिया द्वारा प्रोटीन में तब्दील करते हैं और इस तरह वह हमारे लिए स्वास्थ्यवर्धक और सुपाच्य बन जाता है।

    आहारः इनसान की ज़रूरत
    भोजन इनसान की अनिवार्य ज़रूरत है। पुराने ज़माने में आहार के सिर्फ़ दो मतलब हुआ करते थे- ‘ज़ायक़ा लेना और भूख मिटाना‘, लेकिन मौजूदा ज़माने में ये दोनों चीज़ें इज़ाफ़ी बन चुकी हैं। आधुनिक युग में वैज्ञानिक शोध  के बाद यह मालूम हुआ कि भोजन का मक़सद है कि जिस्म को ऐसा आहार मुहैया करना जिसे मौजूदा ज़माने में संतुलित आहार (balanced diet) कहा जाता है। जिसमें बुनियादी तौर पर 6 तत्व शामिल हैं-
    A balance diet is one which cotains carbohydrate, protein, fat, vitamins, mineral salts and fibre in the correct proportions .

    इन तत्वों में से प्रोटीन (protein) की अहमियत बहुत ज़्यादा है क्योंकि प्रोटीन का हमारे जिस्म की बनावट में बुनियादी हिस्सा है।
    Protein is the main building block of our body .

    प्रोटीन का सबसे बड़ा ज़रिया मांसाहार है। मांस से हमें उत्तम प्रोटीन मिलता है। मांस के अलावा अन्य चीज़ों से भी कुछ प्रोटीन मिलती है लेकिन वह अपेक्षाकृत निम्न स्तरीय होती है।
    Meat is the best source for high-quality protein .
    Plant protein is of a lower biological value . 

    मज़ीद यह कि मांसीय प्रोटीन और ग़ैर-मांसीय प्रोटीन का विभाजन भी सिर्फ़ समझने की ग़र्ज़ से है, वह वास्तविक विभाजन नहीं है। इसलिये कि सूक्ष्मदर्शी के अविष्कार के बाद वैज्ञानिकों ने जो अध्ययन किया है उससे मालूम होता है कि सभी खाद्य सामग्री के अन्दर बेशुमार बैक्टीरिया मौजूद रहते हैं जो पूरी तरह जीवधारी होते हैं। मांस से भिन्न जिन खाद्य चीज़ों के बारे में समझा जाता है कि उनमें बड़ी मात्रा में प्रोटीन होता है मस्लन दूध, दही, पनीर वग़ैरह, वे सब बैक्टीरिया की सूक्ष्म प्रक्रिया के ज़रिये ही अंजाम पाता है। बैक्टीरिया का अमल अगर उसके अन्दर न हो तो किसी भी ग़ैर-मांसीय भोजन से प्रोटीन हासिल नहीं किया जा सकता।
    बैक्टीरिया को विज्ञान की भाषा में माइक्रो-ओर्गेनिज्म  (Micro organism) कहा जाता है, यानि सूक्ष्म जीव। इसके मुक़ाबले में बकरी और भेड़ वग़ैरह की हैसियत मैक्रो-ओर्गेनिज्म (macro-organism) की है यानि विशाल जीव। इस हक़ीक़त को सामने रखिये तो यह कहना बिल्कुल सही होगा कि
    हर आदमी व्यवहारतः मांसाहार कर रहा है। फ़र्क़ सिर्फ़ यह है कि तथाकथित शाकाहारी उसे सूक्ष्म जीवों के रूप में ले रहे हैं और नॉन-वेजिटेरियन लोग उसे बड़े जीवों के रूप में ले रहे हैं।
    दूसरे अल्फ़ाज़ में यह कि हर इनसान का पेट एक बहुत बड़ा स्लॉटर हाउस की हैसियत रखता है। इस अदृष्ट स्लॉटर हाउस में रोज़ाना मिलियन एंड मिलियन सूक्ष्म जीव ख़त्म होते रहते हैं। इनकी संख्या इतनी ज़्यादा होती है कि सारी दुनिया में बड़े जानवरों के जितने स्लॉटर हाउस हैं उन सबमें कुल जितने जानवर मारे जाते हैं उनसे असंख्य गुना ज़्यादा ये सूक्ष्म जीव मारे जाते हैं।
    इस सारे मामले का ताल्लुक़ रचयिता की सृष्टि योजना से है। उस रचयिता ने सृष्टि का जो विधान निश्चित किया है, वह यही है कि इनसान के जिस्म की आहार संबंधी ज़रूरत ज़िन्दा जीवों (living organism) के ज़रिये पूरी हो। प्राकृतिक योजना के मुताबिक़ ज़िन्दा जीवों को अपने अन्दर दाखि़ल किये बिना कोई मर्द या औरत अपनी ज़िन्दगी को बाक़ी नहीं रख सकता। उस रचयिता के विधान के मुताबिक़ ज़िन्दा चीज़ें ही ज़िन्दा वजूद की खुराक बनती हैं। जिन चीज़ों में ज़िन्दगी न हो, वे ज़िन्दा लोगों के लिए खुराक की ज़रूरत पूरी नहीं कर सकतीं। इसका मतलब यह है कि वेजिटेरियनिज़्म (vegetarianism) और नॉनवेजिटेरियनिज़्म (non-vegetarianism) की परिभाषायें सिर्फ़ साहित्यिक परिभाषाएं हैं, वे वैज्ञानिक परिभाषाएं नहीं हैं।
    इसका दूसरा मतलब यह है कि इस दुनिया में आदमी के लिये इसके सिवा कोई चॉइस (choice) नहीं है कि वह नॉन-वेजिटेरियन बनने पर राज़ी हो। जो आदमी ख़ालिस वेजिटेरियन बनकर ज़िन्दा रहना चाहता हो, उसे अपने आप को या तो मौत के हवाले करना होगा या फिर उसे एक और दुनिया रचनी होगी जहां के नियम मौजूदा दुनिया के नियमों से अलग हों। इन दो के सिवा कोई दूसरी चॉइस (choice) इनसान के लिये नहीं है।

    इतिहास की वैचारिक ग़लतियां
    दर्शन कल्पना जनित ज्ञान (speculative sciences) में से एक है। दर्शन एक प्राचीन कालीन ज्ञान है। दुनिया के बड़े-बड़े दिमाग़ दार्शनिक चिंतन में व्यस्त रहे हैं, लेकिन लम्बे इतिहास के बावजूद दार्शनिकों का वर्ग इनसान को कोई पॉज़िटिव चीज़ न दे सका, बल्कि दर्शन ने सिर्फ़ इनसान की वैचारिक पेचीदगियों में इज़ाफ़ा किया। फ़ारसी शायर ने बिल्कुल सही कहा हैः
    फ़लसफ़ी सिर्रे हक़ीक़त न तवानस्त कशूद
    गश्त राज़ दिगर आं राज़ के फ़शामी कर्द
    फ़लसफ़े ने इनसान को चीज़ें दीं, उन्हें एक लफ़्ज़ में वैचारिक भ्रम कहा जा सकता है यानि ऐसी कल्पनाएं जो हक़ीक़त पर आधारित न हों। विचार का इतिहास इन मिसालों से भरा हुआ है।
    सभी दार्शनिकों की साझा ग़लती यह रही है कि हरेक के ज़हन में चीज़ों का एक आदर्श मॉडल ¼ideal model½ बसा हुआ था, जो कभी और किसी दौर में हासिल न हो सका। इसका कारण यह था कि दार्शनिकों का यह मॉडल दुनिया के बारे में इसके रचयिता की सृष्टि योजना के अनुकूल नहीं था। रचयिता ने इस दुनिया को इम्तेहान के लिये पैदा किया है, न कि इनाम के लिये। इसी इम्तेहान के लिये इनसान को आज़ादी दी गई है। इम्तेहान की यह आज़ादी इस राह में रूकावट है कि इस दुनिया में कभी कोई आदर्श व्यवस्था क़ायम हो सके।
    आदर्श व्यवस्था सिर्फ़ उस वक़्त बन सकती है, जब कि सभी लोग बिना अपवाद के अपनी आज़ादी का बिल्कुल सही इस्तेमाल करें। विभिन्न कारणों से ऐसा होना कभी मुम्किन नहीं है। इसलिये इस दुनिया में आदर्श व्यवस्था का बनना भी कभी मुम्किन नहीं है। इतिहास के सभी दार्शनिक इस हक़ीक़त से बेख़बर थे। यही वजह है कि सभी दार्शनिक अपने ज़हन के मुताबिक़ आदर्श व्यवस्था का सपना देखते रहे, मगर प्रकृति के नियम के मुताबिक़ उनका यह सपना कभी पूरा न हो सका। यहां बतौर नमूना चन्द मिसालें दर्ज की जाती है ।
    1- प्लेटो ¼Plato½ प्राचीन यूनान का एक मशहूर दार्शनिक है। उसने 387 ई.पू. में एथेन्स ¼Athens½ में एक रॉयल एकेडमी क़ायम की। उसका मक़सद शासक वर्ग को शिक्षित करके दार्शनिक राजा बनाना था। उसका लक्ष्य यह था कि इस एकेडमी में तैयारशुदा दार्शनिक राजा यूनान में आयडियल इस्टेट क़ायम करेंगे जो सारी दुनिया के लिये एक आदर्श राज्य होगा। शहज़ादा सिकन्दर ¼Alexander½ प्लेटो का प्रिय शिष्य था। अपने बाप फ़िलिप के मरने के बाद 336 में वह यूनान का राजा बन गया लेकिन तख़्त पर बैठने के बाद ही वह फ़िलॉस्फ़र किंग बनने के बजाय एक्सप्लॉयटर किंग ¼Exploiter king½ बन गया। आदर्श राज्य क़ायम करने के बजाय उसका उद्देश्य यह हो गया कि वह सारी दुनिया में अपना एकछत्र राज्य क़ायम करे। प्लेटो के सपने के बजाय वह लॉर्ड एक्टिन के इस कथन की मिसाल बन गयाः
     
    Power corrupts and absolute power corrupts absolutely .

    आयडियलिज़्म की यह दार्शनिक कल्पना पूरे इतिहास में छाई रही है। आयडियल इस्टेट, आयडियल समाज, आयडियल सिस्टम का लक्ष्य हमेशा तमाम दार्शनिकों और चिंतकों का ऐसा सुनहरा सपना रहा है जो कभी पूरा न हो सका। उसकी वजह यह थी कि कि यह सपना इस ग़लत विचार पर आधारित था कि मौजूदा दुनिया में आयडियल जीवन मिलना सिर्फ़ जन्नत में ही संभव है। मौजूदा दुनिया सिर्फ़ इसलिये बनी है कि इनसान यहां अपने आपको जन्नत का पात्र सिद्ध कर सके, ताकि वह मरने के बाद जन्नत की आयडियल दुनिया में जगह पा सके। जिस तरह एक विद्यार्थी को परीक्षा कक्ष में अपना वांछित जॉब नहीं मिल सकता, उसी तरह मौजूदा दुनिया में किसी इनसान को आयडियल जन्नत कभी नहीं मिल सकती।
    2- उन्नीसवीं सदी ईस्वी में जब वैज्ञानिक परीक्षण का तरीक़ा दुनिया में प्रचलित हुआ तो दार्शनिकों के अन्दर एक नया विचार पैदा हुआ जिसका यह कहना था कि हक़ीक़त वही है जिसे देखा जा सकता ¼observable½ हो, जिसे मालूम साइंसी तरीक़ों के मुताबिक़ सत्यापित ¼verify½ किया जा सकता हो। इसी सोच के तहत बहुत से मत बने। मस्लन उन्नीसवीं सदी का फ्ऱेंच दार्शनिक ऑगस्ट  कॉम्टे (Auguste Comte) का पॉज़िटिविज़्म (Positivism) और बीसवीं सदी के जर्मन दार्शनिक रूडोल्फ़ कारनेप (Rudolf Carnap) का लॉजिकल पॉज़िटिविज़्म वग़ैरह।
    इस क़िस्म के चिंतकों और दार्शनिकों ने तक़रीबन सौ साल तक दुनिया भर के ज़हनों को यह यक़ीन दिलाने की कोशिश की कि जो चीज़ देखी न जा सके वह हक़ीक़त भी नहीं है। इन नज़रियों के तहत वह दर्शन पैदा हुआ जिसे वैज्ञानिक नास्तिकवाद (scientific atheism) कहा जाता है। इन नज़रियों के मुताबिक़ ईश्वर और धर्म की मान्यताएं इल्मी ऐतबार से बेबुनियाद साबित हो गईं।
    इल्मी दुनिया में वैज्ञानिक नास्तिकवाद पर चर्चा जारी था कि खुद विज्ञान ने ही इस नज़रिये को बेबुनियाद साबित कर दिया। विज्ञान में यह तब्दीली उस वक़्त आई जब कि वैज्ञानिकों ने उस हक़ीक़त को दरयाफ़्त कर लिया जिसे क्वांटम मैकेनिक्स (quantum mechanics) कहा जाता है। इस खोज को महानतम बौद्धिक विजय (greatest intellectual triumph) कहा जाता है। इस वैज्ञानिक नज़रिये का एक नतीजा यह था कि एटम को लहर समझा जाने लगा। इस वैज्ञानिक खोज में ख़ास तौर पर इन वैज्ञानिकों के नाम शामिल हैं ।
    Paul Dirac, Heisenberg, Jordan, Schrodinger, Einstein

    इस वैज्ञानिक खोज ने न्यूटन के पुराने मैकेनिक्स को इल्मी तौर पर रद्द कर दिया। अब इल्म का दरिया विशाल जगत (macro world) से गुज़र कर सूक्ष्म जगत (micro world)तक पहुंच गया यानि दिखाई देने वाली चीज़ के अलावा न दिखाई देने वाली चीज़ें भी ज्ञान का विषय बन गईं। 
    तर्क के नये आधार
    यह एक दूरगामी नतीजों वाला इंक़लाब था जो बीसवीं सदी के शुरूआती पांच दशकों में पेश आया। इसके नतीजे में जो वैचारिक तब्दीलियां हुईं, उनमें से एक अहम तब्दीली यह थी कि तर्क का सिद्धांत (principle of reason) बदल गया। इस वैचारिक क्रांति से पहले यह समझा जाता था कि जायज़ तर्क वही है जो सीधा तर्क हो यानि तर्क निरीक्षण और परीक्षण पर आधारित हो, लेकिन अब अनुमान आधारित तर्क भी यकसां तौर पर जायज़ तर्क बन गया। जब परमाणु के सूक्ष्म पार्टिकल्स दिखाई न देने के बावजूद सिर्फ़ अनुमान की बुनियाद एक वैज्ञानिक तर्क मान लिया गया तो लाज़िमी तौर पर इसका मतलब यह भी था कि अनुमान आधारित तर्क की बुनियाद पर ईश्वर के विषय में तर्क भी ठीक उसी तरह जायज़ वैज्ञानिक तर्क है।
    ईश-चिंतक ईश्वर के वजूद पर एक तर्क जो देते थे उसकी बुनियाद डिज़ाइन (argument from design) पर थी यानि जब डिज़ाइन है तो ज़रूरी है कि उसका एक डिज़ाइनर हो।इस तर्क को पहले द्वितीय स्तर का तर्क माना जाता था लेकिन अब नई वैज्ञानिक क्रांति के बाद यह तर्क भी उसी तरह अव्वल दर्जे के तर्क की सूची में आ गया जैसे कि दूसरे ज्ञात वैज्ञानिक तर्क।
    3- इन्हीं वैचारिक मुग़ालतों में से एक मुग़ालता वह है जिसे डार्विनवाद कहा जाता है। इस विचार को मौजूदा ज़माने में बहुत शोहरत मिली है। इस नज़रिये के बारे में बेशुमार किताबें लिखी गई हैं और सभी यूनिवर्सिटियों में इसे बाक़ायदा कोर्स में शामिल किया गया है, लेकिन इसका वैज्ञानिक विश्लेषण कीजिये तो वह एक खूबसूरत मुग़ालते के सिवा और कुछ नहीं। डार्विनवाद को दूसरे अल्फ़ाज़ में जैव विकासवाद भी कहा जाता है।
    इसका खुलासा यह है कि बहुत पहले ज़िन्दगी एक सादा ज़िन्दगी से शुरू  हुई। फिर सन्तानोत्पत्ति के ज़रिये वह बढ़ती रही। हालात के असर से इसमें लगातार बदलाव होता रहा। यह बदलाव लगातार विकास यात्रा करते रहे। इस तरह एक प्राथमिक जीव मुख्तलिफ़  जातियों में बदलता चला गया। इस लम्बे अमल के दौरान एक भौतिक नियम उसका मार्गदर्शन करता रहा। यह भौतिक नियम डार्विन के अल्फ़ाज़ में ‘नेचुरल सलेक्शन‘ था।
    इस नज़रिये में बुनियादी कमी यह है कि वह दो समरूप जातियों का हवाला देता है और फिर यह दावा करता है कि लम्बे जैविक विकास के ज़रिये एक जाति दूसरी जाति में तब्दील हो गई। मस्लन बकरी धीरे-धीरे जिराफ़ बन गई वग़ैरह। यह नज़रिया बकरी और जिराफ़ को तो हमें दिखाता है लेकिन वह बीच की जातियां इसकी सूची में मौजूद नहीं हैं जो तब्दीली के सफ़र अमली तौर पर दिखायें। विकासवाद के समर्थकों बीच की इन कड़ियों को ‘मिसिंग लिंक‘ कहते हैं लेकिन यह मिसिंग लिंक सिर्फ़ एक काल्पनिक लिंक है। निरीक्षण और परीक्षण के ऐतबार से इनका कोई वजूद नहीं।
    इस नज़रिये की शोहरत  का राज़ सिर्फ़ यह था कि वह सेक्युलर बुद्धिजीवियों को एक कामचलाऊ नज़रिया दिखाई दिया, लेकिन कोई नज़रिया इस तरह की कल्पना से साबित नहीं होता। किसी नज़रिये को साबितशुदा नज़रिया बनाने के लिए ज़रूरी है कि उसके पक्ष में ज्ञात तथ्य मौजूद हों जो उसे प्रमाणित करते हों, लेकिन डार्विनवाद को प्रमाणित करने के लिए ऐसे तथ्य मौजूद नहीं हैं। मिसाल के तौर पर डार्विनवाद के मुताबिक़ जैव विकास के लिए बहुत लम्बी अवधि दरकार है। वैज्ञानिक अनुसंधान के मुताबिक़ मौजूदा ज़मीन की आयु उसके मुक़ाबले बहुत कम है। ऐसी हालत में, अगर मान भी लें कि विकास की प्रक्रिया डार्विन के नज़रिये के मुताबिक़ पेश आई हो तो वह मौजूदा सीमित ज़मीन पर कभी घटित नहीं हो सकती।
    ज़मीन की सीमित आयु के बारे में जब विज्ञान की खोज सामने आई तो उसके बाद विकास के समर्थकों ने यह कहना शुरू किया कि ज़िन्दगी कहीं बाहर किसी और ग्रह पर पैदा हुई, फिर वहां से सफ़र करके ज़मीन पर आई। इस विकासवादी नज़रिये को उन्होंने काल्पनिक तौर पर पैन्सपर्मिया का नाम दिया। अब दूरबीनों और अंतरिक्ष या़त्राओं के ज़रिये अंतरिक्ष में कुछ काल्पनिक ग्रहों की खोज शुरू हुई मगर बेशुमार कोशिशों के बावजूद अब तक यह काल्पनिक ग्रह खोजा न जा सका।
    4- इसी क़िस्म का वैचारिक मुग़ालता वह है जिसे मानववाद कहा जाता है, यानि ब्रह्मण्ड की मनुष्य केन्द्रित व्याख्या। इस दर्शन के तहत ईश्वर की मान्यता को हटाकर सिर्फ़ इनसान की बुनियाद पर ज़िन्दगी की व्याख्या की जाती है। इस नज़रिये का खुलासा इन अल्फ़ाज़ में बयान किया जाता है- ‘सीट का ईश्वर से ट्रांसफ़र होकर इनसान को दे देना‘
    इस नज़रिये की हिमायत में बीसवीं सदी ईस्वी में बहुत सी किताबें लिखी गईं। उन्हीं में से एक किताब वह है जो अंग्रेज़ दार्शनिक जूलियन हक्सले (मृत्युः 1975) ने तैयार करके प्रकाशित की थी। किताब के विषय के मुताबिक़ उसका टाइटिल थाः Man stands alone .
    यह पूरी किताब दावा और कल्पना पर आधारित है। इसमें कोई वास्तविक तथ्य मौजूद नहीं है। मस्लन इसमें यह दावा किया गया है कि अब इनसान को ‘वह्य‘ की ज़रूरत नहीं, अब इनसान के मार्गदर्शन के लिए अक्ल बिल्कुल काफ़ी है, मगर इस दावे के समर्थन में किताब में कोई दलील मौजूद नहीं। अमरीकी वैज्ञानिक क्रेसी मारिसन (मृत्युः 1951) ने खालिस इल्मी अन्दाज़ में इस किताब का जवाब दिया। यह किताब जूलियन हक्सले के दावे को बिल्कुल बेबुनियाद साबित करती हैः Man does not stand alone .
    5- बुद्धिज़्म को मौजूदा ज़माने में सेक्युलर तबक़े के दरम्यान काफ़ी शोहरत हासिल हुई। इसे यह शोहरत किसी वैज्ञानिक बुनियाद पर नहीं हुई है बल्कि सिर्फ़ एक मुग़ालते की बुनियाद पर हुई है। आम तौर पर लोग चीज़ों का वैज्ञानिक विश्लेषण करके उसकी हक़ीक़त तक पहुंचने की कोशिश नहीं करते। इस कारण अक्सर लोग भ्रामक प्रचार के शिकार हो जाते हैं। बुद्धिज़्म की मौजूदा शोहरत भी उन्हीं में से एक है।
    बुद्धिस्ट फ़िलॉसॉफ़ी के मुताबिक़ इनसान नस्ल-दर-नस्ल एक लम्बा सफ़र कर रहा है। इसकी आखि़री मंज़िल निर्वाण है। इस आखि़री मंज़िल तक पहुंचने का एक निश्चित विधान है। यह कार्य और कारण का विधान है। हर औरत या मर्द अपने अमल के मुताबिक़ एक जन्म के बाद दूसरे जन्म में पैदा होते रहते हैं। कभी अच्छी हालत में और कभी बुरी हालत में। इस नज़रिये को पुनर्जन्म कहा जाता है और फिर कई मिलियन साल तक यह करते-करते वह ‘मुक्ति‘ तक पहुंचते हैं, जिसे बुद्धिज़्म में ‘निर्वाण‘ का नाम दिया गया हैः
    They all hold in common a doctrine of Karman (effects) , the law of cause and effect, which states that what one does in this present life will have its effect in the next life. (EB/VIII: 488)

    यह दर्शन सिर्फ़ एक मुग़ालिता है। पुनर्जन्म का यह नज़रिया कहता है कि आदमी अपने पिछले जन्म में किये हुए कर्म के मुताबिक़ अगले जन्म में अच्छी हालत या बुरी हालत में पैदा होता है। अगर यह बात दुरूस्त है तो हरेक को अपने पिछले जन्म का हाल याद रहना चाहिए, जिस तरह जेल में सज़ा पाने वाले एक क़ैदी को अपने पिछले दिनों का जुर्म याद रहता है या तरक्की पर पहुंचने वाले एक आदमी को अपने पिछले ज़माने की वे कोशिशें याद रहती हैं जिनकी वजह से वह उस ओहदे तक पहुंचा, लेकिन जैसा कि मालूम है, दुनिया भर में बसने वाले औरतों और मर्दों को अपने पिछले जन्म के बारे में कुछ भी याद नहीं।
    यह वाक़या पुनर्जन्म के दर्शन को सरासर ग़ैर-इल्मी साबित कर रहा है। मौजूदा दुनिया में मनोविज्ञान के तहत इनसान का बहुत विस्तृत अध्ययन किया गया है। इससे यह साबित हुआ है कि याद्दाश्त इनसान की शख्सियत  का अकाट्य हिस्सा है। इनसानी शख्सियत  को उसकी याद्दाश्त से जुदा नहीं किया जा सकता, लेकिन पुनर्जन्म के मामले में हम देखते हैं कि हर आदमी की शख्सियत  एक जन्म से दूसरे जन्म की तरफ़ इस तरह सफ़र करती है कि अपने पिछले ज़माने के बारे में उसकी याद्दाश्त उसके साथ मौजूद नहीं होती। किसी आदमी के अगले जन्म में अगर उसकी पिछली शख्सियत ट्रांसफर होती है तो उसकी याद्दाश्त उसके साथ लाज़िमी तौर पर मौजूद रहनी चाहिए। यह वाक़या इस पूरे नज़रिये को सरासर बेबुनियाद साबित कर रहा है।
    वैज्ञानिक चेतना के युग से पहले महज़ कल्पना के तहत इस तरह का नज़रिया माना जा सकता था लेकिन इस वैज्ञानिक युग यह बिल्कुल अस्वीकार्य हो चुका है। आधुनिक विज्ञान ने जिस तरह दूसरी तमाम मनघड़त कल्पनाओं को बेबुनियाद साबित कर दिया है, उसी तरह पुनर्जन्म की कल्पना भी अब निस्संदेह बेबुनियाद क़रार पाएगा।
    6- इन्हीं वैचारिक मुग़ालतों में से एक वह है जो वेजिटेरियनिज़्म के नाम से जाना जाता है। यहां इस मामले की थोड़ा स्पष्ट किया जाना ज़रूरी है।
    लोहे और पत्थर जैसी चीज़ें निर्जीव पदार्थ की हैसियत रखती हैं। इनके वजूद के लिए जीवों की ज़रूरत नहीं है, लेकिन इनसान की हैसियत एक ज़िन्दा वजूद की है। उसे जीवन की रक्षा करने के लिए जीवों की ज़रूरत है। अपने वजूद को बाक़ी रखने के लिए उसे हर लम्हा जीवनदायी आहार की ज़रूरत है। यह आहार इनसान को सब्ज़ी, फल और अनाज वग़ैरह के रूप में हासिल होता है। इन भोज्य पदार्थों को खाकर पेट में डालना ही काफ़ी नहीं है। इसके बाद एक और प्रक्रिया ज़रूरी है जिसे पाचन क्रिया कहा जाता है। यह अमल एक पेचीदा निज़ाम ए हज़्म के तहत अंजाम पाता है। इसके बाद ही ये भोज्य पदार्थ ‘ारीर का अंश बनते है। इस पाचन क्रिया में अस्ल हिस्सा ज़िन्दा बैक्टीरिया का होता है। बैक्टीरिया इतने छोटे होते हैं कि वह आंखों दिखाई नहीं देते लेकिन वे पूरे तौर पर एक ज़िन्दा वजूद होते हैं। ये बैक्टीरिया बेशुमार तादाद में इनसान के जिस्म में दाखि़ल होकर पाचन क्रिया को पूरा करते हैं। अगर बैक्टीरिया की मदद न मिले तो कोई भी आहार इनसान के लिए स्वास्थ्यवर्धक आहार न बन सके।
    इस मामले को समझने के लिए एक मिसाल लीजिये। नई दिल्ली के अंग्रेज़ी अख़बार टाइम्स आॅफ़ इंडिया (26 दिसम्बर 2007) के पहले पृष्ठ पर एक नुमायां और रंगीन इश्तेहार छपा है। इसका शीर्षक मोटे अक्षरों में यह है- डेली पियो, हैल्दी जियोः
    Daily piyo . healthy jiyo .

    यह एक इन्टरनेशनल पेय का इश्तेहार है जिसे स्वास्थ्यवर्धक पेय बताया गया है और इसका नाम ‘याकुल्ट‘ है। यह 1935 में बनाया गया और 30 देशों मे इस्तेमाल किया जा रहा है। अब भारत में भी इसका इस्तेमाल शुरू किया गया है।
    इस इश्तेहार में इसकी वैज्ञानिक व्याख्या करते हुए यह बताया गया है कि इसमें फ़ायदेमंद बैक्टीरिया बहुत बड़ी तादाद में मौजूद होते हैं, जो पाचन क्रिया में बेहद सहायक होते हैं। वे विभिन्न पहलुओं से इनसान को ताक़त देते हैं ।
    Yakult is a probiotic drink that contains special beneficial bacteria , lactobacillus casie strains shirota . Every 65 ml bottle of yakult contains over 6.5 billion friendly bacteria . Yakult’s bacteria are unique and reach the intestines alive to impart various health benefits . Yakult aids digestion , builds immunity , and prevents infection .
    जीवनदायी बैक्टीरिया हर पल इनसान के जिस्म में विभिन्न तरीक़ों से दाखि़ल होते रहते हैं। उपरोक्त पेय इसी अमल को ज़्यादा तेज़ करने की तदबीर है।
    मालूम हुआ कि मांसीय आहार इनसान के लिए अख़ितयारी बात नहीं है, वह इनसान की मजबूराना ज़रूरत है। हर आदमी जानता है कि आहार इनसान के लिए ज़रूरी है। इस मामले में वेजिटेरियन फ़ूड और नॉन-वेजिटेरियन फ़ूड की का विभाजन सिर्फ़ एक काल्पनिक विभाजन है, वह वास्तविक विभाजन नहीं है, क्योंकि अस्ल हक़ीक़त के ऐतबार से हरेक भोजन आखि़रकार एक मांसीय आहार है। फ़र्क़ सिर्फ़ यह है कि नॉन-वेजिटेरियन फ़ूड में उसका मांसीय होना आंखों से दिखाई नहीं देता। दूसरे अल्फ़ाज़ में यह कि नॉन-वेजिटेरियन आदमी बड़े जीव (macro organism) को अपना आहार बनाता है और तथाकथित वेजिटेरियन आदमी सूक्ष्म जीवों को ( micro organism)अपना आहार बना रहा है। ज़ाहिरी तौर पर दोनों एक दूसरे से अलग दिखाई देते हैं लेकिन हक़ीक़त के ऐतबार से दोनों में कोई फ़र्क़ नहीं।
    प्रकृति के विरूद्ध सिद्धांत
    जो लोग कहते हैं कि वेजिटेरियन फ़ूड ही इनसान के लिए सही भोजन है, वह एक ऐसी बात कहते हैं जो सिर्फ़ उनके अपने ज़हन की पैदावार है। उनके अपने ज़हन के बाहर इसकी कोई दलील मौजूद नहीं। जैसा कि अर्ज़ किया गया, इन लोगों का कलिमा यह है -जीव को मारना पाप है और जीव की रक्षा करना पुण्य है।
    killing a sensation is sin and vice versa .

    यह एक मनघड़त कल्पना है। इसकी कोई बुनियाद न तो प्रकृति के नियमों में है और न विज्ञान की दरयाफ़्तों में। यह नज़रिया पूरी तरह एक अप्राकृतिक नज़रिया है। मस्लन लोग इनसानी दांतों की बनावट देखकर कहते हैं इनसान के दांत मांसाहारी जानवरों से अलग होते हैं। इसलिए इनसान शाकाहारी जीव (herbivorous) है न कि मांसाहारी जीव (carnivorous)। लेकिन यह बात सही नहीं है।
    अस्ल बात यह है कि इनसान के दांत मांसाहारी जानवरों से अलग नहीं बल्कि उनके सदृश होते हैं। इसका कारण यह है कि मांसाहारी जीव पशुओं का मांस कच्चा खाते हैं , इसलिए उनके दांत अलग बनाए गये हैं। लेकिन इनसान मांस को पका कर खाता है, इसलिए उनके दांत मांसाहारी जानवरों से आंशिक समानता तो ज़रूर रखते हैं लेकिन वे बिल्कुल उसके मुताबिक़ नहीं होते।
    जैसा कि मालूम है कि ज़मीन का तक़रीबन 71 प्रतिशत हिस्सा समुद्र है जो कि पानी से भरा हुआ है। ज़मीन में खुश्की का हिस्सा अपेक्षाकृत बहुत कम है। जबकि कृषि पैदावार हासिल करने के लिए खुश्क ज़मीन ज़रूरी है। ज़मीन का यह दस्तयाब खुश्क हिस्सा तमाम इनसानों के लिए कृषि से प्राप्त भोजन हासिल करने के लिए बिल्कुल अपर्याप्त है। जबकि इसी सीमित खुश्क हिस्से पर इनसानी आबादियां हैं, बड़े-बड़े कारख़ाने हैं। जंगल और रेगिस्तान, पहाड़, झील और नदियां हैं। ऐसी हालत में अगर सिर्फ़ कृषि आधारित भोजन पर निर्भर रहना हो तो इनसानों के बड़े हिस्से को भुखमरी का शिकार होना पड़ेगा।
    ज्ञात रहे कि इस वक़्त  ज़मीन पर 7 बिलियन से ज़्यादा इनसान आबाद हैं। ऐसी हालत में कृषि आधारित भोजन की यह कमी सिर्फ़ मांसाहार से पूरी की जा सकती है, जैसाकि दुनिया में हो रहा है। उस रचयिता को यह बात मालूम थी। सो उसने समुद्रों में नॉन-वेजिटेरियन फ़ूड का बहुत बड़ा भण्डार रख दिया। इसी के साथ खुदा ने फ़िज़ाओं में उड़ने वाली चिड़ियां बनाईं और जंगलों में तरह-तरह के जानवर पैदा कर दिए। ये सब इसलिए हुआ ताकि इनसान कृषि से मिलने वाले भोजन की कमी को मांसाहार के ज़रिये पूरा कर सके।
    Source : http://islamdharma.blogspot.com/2010/11/message-of-eid-ul-adha-maulana.html

    4 comments:

    Anonymous said...

    anwar jamaal ji - kuchh prashn hain - kurbaani ko lekar | ek post likh rahi hoon | shaayad kal tak post kar doon | krupaya mere sanshayon ke uttar dijiyega |

    Santhalika said...

    पहली बात कोई मुसलमान मास खाए बिना भी एक अच्छा मुस्लमान रह सकता है। मॉस खाना इस्लाम मैं फ़र्ज़ नहीं है।

    लेकिन
    अल्लाह तालहा ने फ़रमाया है कुरआन में सूरा माइदा में:-
    (सूरा नम्बर 5 आयत नम्बर 1) ''
    हमने चार पैर वाले जानवर बनाये हैं तुम्हारे खाने के लिए ,सिर्फ वह जानवर मत खाओ जिनको हमने मना किया है। जो जानवर खाने में हराम हैं वह मत खाओ।

    इसी तरह सूरा नहल (सूरा नम्बर 16 आयत नम्बर 5)
    में अल्लाह तालह फरमाते हैं हमने भेड़ -बकरियाँ बनाई आप उनका गोश्त खा सकते हो .
    इसके अलावा भी कई आयाते हैं।.... continue next comment..

    Santhalika said...

    अब जवाब उनके लिए जो भाई इसको विज्ञान के तर्क से परखना चाहेंगे

    01.आज का विज्ञानं यह कहता है कि इंसान को जिंदा रहने के लिए तकरीबन 22 तरह के अमीनो एसिड की ज़रुरत पड़ती है .
    जिनमे से 8 अमीनो एसिड हमारे जिस्म मैं पैदा नहीं होते हैं।इनको बहार के खाने से ही लिया जा सकता है।और किसी भी शाक -सब्जी में यह 8 के 8 अमीनो एसिड नहीं मिलते हैं।लकिन यह 8 के 8 एमिनो एसिड मॉस और मछली में होते हैं

    02. दूसरी बात जो जानवर शाकाहारी हैं उनके दात चपटे होते हैं (herbivorous flat teeth). वह जानवर सिर्फ घास -फूस खा सकते हैं मॉस नहीं खा सकते हैं।
    अब आप उन जानवरों को देखो जो सिर्फ मॉस खाते हैं घास-फूस नहीं खाते हैं।उनके दात नुकीले होते हैं (set of pointed teeth) वह सिर्फ मॉस खा सकते हैं घास-फूस नहीं खा सकते हैं।

    03.अब आप ज़रा अपने (ह्यूमन )दात देखो .....यह चपटे भी हैं और नुकीले भी। अगर अल्लाह तालह चाहते की इंसान सिर्फ शाक -सब्जी ही खाए तो यह नुकीले दात इंसान को अल्ल्लाह ने क्यों दिए ?

    04. अब ज़रा शाकाहारी जानवरों की पाचन क्रिया (digestive system) को देखो उनका पाचन तंत्र ऐसा है की सिर्फ घास-फूस ही हज़म कर सकते हैं मॉस हज़म नहीं कर सकते हैं।

    05. अब उन जानवरों का पाचन तंत्र (digestive system) देखो जो मासंहरी हैं
    उनका पाचन तंत्र सिर्फ मॉस को ही हज़म कर सकता है .घास-फूस हज़म नहीं कर सकता।

    06.अब ज़रा अपना (ह्यूमन )पाचन तंत्र (digestive system) देखो यह शाक सब्जी भी हज़म कर लेता है आसानी से और मॉस भी अगर अल्लाह तालह चाहते की इंसान सिर्फ शक- सब्जी ही खाए तो फिर ऐसा पाचन तंत्र क्यों दिया ? continue comment

    Santhalika said...

    हमारे कुछ भाई यह समझते हैं की हिन्दू धर्म में मॉस खाना हराम हैं।

    अगर आप पढेंगे हिन्दू धर्म की किताब ''मनुस्मरती '' अध्याय नम्बर 5, शलोक नम्बर 30 तो उसमे लिखा है की
    ''भगवान् ने कुछ जानवर को खाने के लिए बनाया है और कुछ को खा जाने के लिए ''
    अगर आप उन जानवरों को खाते हैं जो भगवान् ने खाने के लिए बनाये हैं तो आप कोई पाप नहीं करते हैं।
    अगले शलोक मैं लिखा है मनुस्मरती अध्याय नम्बर 5, शलोक नम्बर 31 में की अगर आप जानवर का कत्ल पूजा के लिए करते हैं तो आप कोई गुनाह नहीं कर रहे हैं

    इसी तरह से मनुस्मरती में आगे लिखा है अध्याय नम्बर 5, शलोक
    नम्बर 39-40 में की भगवान् ने कुछ जानवरों को बनाया है कुर्बानी के लिए इनकी क़ुरबानी दी जा सकती है और इनको खाया जा सकता है।

    इसके अलावा ऋग वेद (Book no.10 Hymn no.85, vol.13)
    में लिखा है की आप भैस भी खा सकते हैं।

    अब ज़रा महाभारत से देखते हैं (जिसको हमारे हिन्दू भाई सबसे ज्यादह पढ़ते हैं )-
    ''महाभारत '' 'अनुशासन पर्व' अध्याय नम्बर 88 में पांडव के सबसे बड़े भाई यूधिस्टर भीष्म से कहते हैं की हम 'यग' में क्या देंगे की हमारे पूर्वज (पूरखे ) सदा के लिए संतुष्ट रहे ?
    भीष्म जवाब देते हैं की अगर आप शाक -सब्जी ,फल देंगे तो हमारे पूर्वज एक महीने तक संतुष्ट रहेंगे . अगर आप मछली देंगे तो दो महीने तक ,अगर गोश्त देंगे तो तीन महीने तक ,खरगोश देंगे तो चार महीने तक ,बकरी देंगे तो पांच महीने तक ,हिरन देंगे तो आठ महीने तक ,इसी तरह से अगर आप भैस देंगे तो ग्यारह महीने तक और अगर गाए देंगे तो पूरे एक साल तक संतुष्ट रहंगे .

    अब आते हैं की ''जीव हत्या पाप है'' पर _ _
    पहले जब साइंस इतनी एडवांस नहीं थी तब लोग मानते थे की जीव हत्या पाप है .
    जबकि आज की साइंस यह बता चुकी है की पेड़ पौधों में भी जान होती है (गज़ब बात यह है की इसको हमारे देश के के महान वैज्ञानिक स्वर्गीय जगदीश चन्द्र बोस ने ही सबसे पहले साबित किया था .... :) )

    तब लोगो ने अपना लॉजिक थोडा सा बदल दिया और कहने लगे हम जानते हैं की पेड़ -पौधों में जान होती है लकिन वह दर्द का एहसास नहीं कर सकते हैं।
    तब जगदीश चन्द्र बोस ने एक यन्त्र बनाया ''क्रेस्कोग्राफ'' जिस से यह साबित किया की पेड़-पौधे हँसते भी हैं और रोते भी हैं उनको दर्द का एहसास भी होता है। .....:)
    यह एक अलग बात है की जब पेड़- पौधे हँसते या रोते हैं तो उनकी आवाज़ हम नहीं सुन पाते हैं क्यूंकि इंसान 20 साइकिल पर सेकेंड(cycles per second) से लेकर 20 हज़ार साइकिल पर सेकेंड तक की ही आवाज़ सुन सकता है।(frequency range for humans)
    न इस रेंज से उपर सुन सकता है और न ही इस रेंज से नीचे।
    इसके अलावा भी कई सारे वैज्ञानिक कारन है यह साबित करने के लिए की खाने के लिए जीव हत्या पाप नहीं है

    मैं सोचता हूँ की इतना काफी है यह बताने के लिए की अगर आप खाने के लिए जीव हत्या करते हैं तो वह पाप नहीं है
    अगर कोई सोचता है की वह बिना जीव हत्या किए जिंदा है उसको ''Psychiatre'' की ज़रुरत है ... ;)
    अगर कोई इस्लाम को जानना चाहता हैं तो उसे कुरान पढ़ना ज़रूरी है । न की मुसलमानों को देखना ...

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