इस आतंक का अंत ?
क्या निज़ात पायेंगे,
देर से ही सही या तुरंत ?
आये दिन हो जाता है विस्फोट,
कई जिंदगियों का अस्तित्व उखड जाता है,
हो जाते हैं अनाथ कई मासूम,
और न जाने कितनो का सुहाग उजड़ जाता है |
अस्पतालों का भी तब विहंगम दृश्य होता है,
किसी का हाथ तो किसी का पैर धड़ से अदृश्य होता है |
विस्फोट की आवाज तो क्षणिक होती है,
पर कईयों के कानों में वो जिंदगी भर गूंजती है |
नेता इस में भी राजनीति से नहीं चुकते,
सरकार के नुमाइंदें भी समाधान नहीं, बस आश्वाशन देते हैं |
कब इस दहशत के माहौल से उबरेंगे ?
कब हमारी जिंदगियों की कीमत होगी और वो सुरक्षित होगी ?
कब तक दिल दहलाने वाले ये दृश्य हम देखते रहेंगे ?
कब तक अपनों को इस कदर हम खोते रहेंगे ?
क्या होगा कभी,
इस आतंक का अंत ?
क्या निज़ात पायेंगे,
देर से ही सही या तुरंत ?
1 comments:
आतंकवाद के ख़ात्मे का सही तरीक़ा
आज लोग आतंकवाद को ख़त्म होते हुए देखना चाहते हैं।
लेकिन सच्चाई यह है कि फ़िलहाल आतंक का अंत तो क्या यह कम होता हुआ भी नहीं लग रहा है।
विदेशी लोग इस क्षेत्र को अशांत देखना चाहते हैं और इस क्षेत्र के राजनीतिज्ञ उनकी नीति को जानते हुए भी उन्हें बुरा तक नहीं कह सकते।
धर्म-मत और क्षेत्रीय अलगाव को आधार बनाकर ये विदेशी शक्तियां एशिया को आपस में लड़ाती आ रही हैं बहुत पहले से।
ईरान इराक़ को लड़ाया और अब पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान को लड़ा रहे हैं। इसी तरह वे भारत को पाकिस्तान और चीन से लड़ाना चाहते हैं। एक दूसरे के प्रति आशंका के चलते ही वे अपने बेकार हथियारों को यहां भारी क़ीमत पर बेच पाते हैं और इसी ख़रीद फ़रोख्त में मोटा माल कमीशन के रूप में हमारे रक्षक ले लेते हैं। अलगाववादी नेता और अभ्यस्त बलवाई भी विदेशों से करोड़ों रूपया हवाला के ज़रिये लाते हैं तो कुछ कर दिखाना उनकी भी मजबूरी होती है। सो आतंकवाद आज एक उद्योग का रूप ले चुका है। जिसमें शिक्षित लोग अच्छा मुनाफ़ा कमा रहे हैं।
हक़ीक़त तो यह है।
ऐसे नारे भी सुनने में आते है कि अमुक देश पर हमला कर देना चाहिए। इस तरह की बातों को बेवक़ूफ़ी के बजाय राष्ट्रवाद का नाम दिया जाता है।
उन्हें नहीं मालूम कि ऐसे हमले जब कभी किये जाते हैं तब भी राजनीतिज्ञ यह सब अपने हितों के मददेनज़र ही करते हैं न कि जनता के व्यापक हित के लिए।
जब सरकार घरेलू मोर्चे पर हार रही होती है तो वह अपने नागरिकों को ध्यान बंटाने के लिए किसी न किसी पर हमला कर भी देती है। अमेरिका भी ऐसे ही करता है।
इस तरह आतंकवाद घटने के बजाय और बढ़ जाता है।
फिर उस आक्रमण के बाद स्थिति शांत होने के बजाय पीड़ित पक्ष प्रतिशोध के लिए खड़ा हो जाता है जैसे कि बांग्लादेश विभाजन के बाद हुआ।
अब यह क्षेत्र इसी राजनीति, कूटनीति और प्रतिशोध के जाल में फंसा हुआ चल रहा है।
जो सच बोलता है, जनता उसकी सुनती नहीं है और जो उसे धोखे देता है उसे यह अपना नेता चुनती है।
जो फ़रेब देकर एमएलए और एमपी बन जाते हैं, उन्हें क्या चिंता है कि जनता में कौन मरेगा या कौन जिएगा ?
जब तक आतंकवाद है, उनसे जनता विकास कार्यों के बारे में पूछेगी नहीं और न ही उनके भ्रष्टाचार को देखेगी।
कांग्रेस भ्रष्टाचार के मुददे पर बुरी तरह नंगी हो चुकी है।
जनता उससे नाराज़ है।
ऐसे में जनता का ध्यान कैसे बंटाया जाए ?
ये धमाके जिसने भी किए हैं, उसने कांग्रेस को लाभ ही पहुंचाया है।
अब भ्रष्टाचार और जन लोकपाल की चर्चा को मीडिया में दबाना आसान है।
लोग मरते हैं और नेता उनकी चिताओं पर अपनी रोटियां सेकते हैं।
यही असल वजह है जिसकी वजह से आतंकवाद है और आतंकवाद इसी वजह से बना भी रहेगा।
बेहतर नेता चुनने के लिए जनता को खुद भी बेहतर बनना होगा।
धर्म-मत, भाषा-क्षेत्र और राजनैतिक विचारधारा के अंतर के बावजूद हमें आपस में एक दूसरे के अधिकारों का सम्मान करना सीखना होगा।
हम बेहतर होंगे तो हमारे बीच से निकलने वाला हमारा नेता बदतर हो ही नहीं सकता।
आतंकवाद का ख़ात्मा ऐसे ही होगा और इस बदलाव को लाने में लंबा समय लगेगा।
जो इस बात को नहीं जानता और नारे लगा रहा है, वह सत्य को न जानकर व्यर्थ की आशा में जीवन गंवा रहा है और जो किसी समुदाय के विरूद्ध भड़काऊ नारे लगा रहा है, वह भी आतंकवाद की बुनियादों को ही मज़बूत कर रहा है।
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