.न्याय पथभ्रष्ट हो रहा है...

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  • Thursday, February 24, 2011
  • by
  • Shalini kaushik
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  • "इंसाफ जालिमों की हिमायत में जायेगा,
    ये हाल है तो कौन अदालत में जायेगा."
       राहत इन्दोरी के ये शब्द और २६ नवम्बर को सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ के द्वारा इलाहाबाद हाईकोर्ट  पर किया   गया दोषारोपण "कि हाईकोर्ट में सफाई के सख्त कदम उठाने की ज़रुरत है क्योंकि यहाँ कुछ सड़ रहा है."साबित करते हैं कि न्याय भटकने की राह पर चल पड़ा है.इस बात को अब सुप्रीम कोर्ट भी मान रही है कि न्याय के भटकाव ने आम आदमी के विश्वास को हिलाया है वह विश्वास जो सदियों से कायम था कि जीत सच्चाई की होती है पर आज ऐसा नहीं है ,आज जीत दबंगई की है ,दलाली की है .अपराधी     बाईज्ज़त     बरी हो रहे हैं और न्याय का यह सिद्धांत "कि भले ही सौ अपराधी छूट   जाएँ किन्तु एक निर्दोष को सजा नहीं होनी चाहिए"मिटटी में लोट रहा है .स्थिति आज ये हो गयी है कि आज कातिल खुले आकाश के नीचे घूम रहे हैं और क़त्ल हुए आदमी की आत्मा  तक को कष्ट दे रहे हैं-खालिद जाहिद के शब्दों में-
    "वो हादसा तो हुआ ही नहीं कहीं,
    अख़बार की जो शहर में कीमत बढ़ा गया,
    सच ये है मेरे क़त्ल में वो भी शरीक था,
    जो शख्स मेरी कब्र पे चादर चढ़ा गया."
    न्याय का पथभ्रष्ट होना आम आदमी के लिए बहुत ही कष्टदायक हो रहा है.आम आदमी खून के आंसू रो रहा है.निचले स्तर पर भ्रष्टाचार   को झेल जब वह उच्च अदालत में भी भ्रष्टाचार को हावी हुआ पाता है तो वह अपने होश खो बैठता है .अपराध कुछ और वह पलट कर कुछ और कर दिया जाता है और अपराधी को बरी होने का मौका कानूनन   मिल जाता है.हफ़ीज़ मेरठी के शब्दों में-
    "अजीब लोग हैं क्या मुन्सफी की है,
    हमारे क़त्ल को कहते हैं ख़ुदकुशी की है."
    आश्चर्य की बात तो यह है कि संविधान द्वारा दिए गए कर्त्तव्य को उच्चतम न्यायालय जितनी मुस्तैदी से निभा रहा है उच्च न्यायालयों में वह श्रद्धा प्रतीत नहीं होतीजबकि संविधान द्वारा लोकतंत्र के आधार स्तम्भ में लोकतंत्र की मर्यादा बनाये रखने के जिम्मेदारी न्यायालयों को सौंपी गयी है और इस तरह उच्च न्यायालयों का भी ये उत्तरदायित्व बनता है कि वे भी उच्चतम न्यायालय की तरह न्याय के संरक्षक बने .उच्च न्यायालय अपनी गरिमा के अनुसार कार्य नहीं कर रहे हैं .कभी कर्णाटक उच्च न्यायालय के न्यायाधीश दिनाकरण का मामला न्याय को ठेस लगाता है तो कभी सुप्रीम कोर्ट की इलाहाबाद हाईकोर्ट में "सडन"की टिपण्णी से सर शर्म से झुक जाता है प्रतीत होता है कि मुज़फ्फर रज्मी के शब्दों में न्याय भी ये कह रहा है-
    "टुकड़े-टुकड़े हो गया आइना गिर कर हाथ से,
    मेरा चेहरा अनगिनत टुकड़ों में बँटकर रह गया."

    2 comments:

    DR. ANWER JAMAL said...

    वकील साहिबा शालिनी कौशिक जी ! यहाँ की अदालतों में न्याय है ही नहीं । अपनी बहन के ससुराल में हुए उत्पीड़न के मुक़द्दमे लड़ते हुए आज मुझे 3 साल से ज़्यादा समय हो गया है लेकिन आज तक मेरी बहन को न तो न्याय मिला है और न ही कोई ख़र्चा ।
    उल्टा यह हुआ कि लड़का पक्ष ने पैसे देकर फ़र्ज़ी मैडिकल कराया और लड़के के बाप की पसली टूटी हुई दिखाकर हम पर 2 मुक़द्दमे कर डाले ।
    ख़ुदा को भूलकर पैसे का नंगा नाच आज आम है ।
    मेरी बहन का बयान दर्ज करने के बाद जज की बग़ल में बैठे हुए अधिकारी ने मुझसे पैसे माँगे । जिस तारीख़ पर चपरासी को 20 रुपए न दूँ उसी रोज़ वह ऐसे ड्रामे दिखाता है कि बस पूछिए मत ।
    इनसे पूछता हूं तो कहते हैं कि जज साहब फल-सब्जी लाने और गैस सिलेंडर भरने का काम हमें दे देते हैं और पैसे देते नहीं हैं , सारा पैसा हमारे घर थोड़े ही जा रहा है । जबकि मैं कोई आम आदमी नहीं हूँ । क़ानून की सेवा करने वालों का साथ देना मेरी दिनचर्या का हिस्सा है । जब मेरा यह हाल हो रहा है तो जनता का विश्वास इस अदालत से कितना डिगता होगा , आप समझ सकती हैं ?

    आपका अख्तर खान अकेला said...

    hmne smjhaa thaa munsif se krnege friyaad
    voh bhi kmbkht teraa chaahne vaala niklaa . akhtar khan akela kota rajsthan

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