महामानवों के निर्माण व सामाजिक श्रेष्ठता संवर्धन में नारी का योगदान
( प्रकृति की सबसे सुन्दर रचना नारी की , अपनी विशिष्ट भाव-संरचना, आदि-शक्ति होने व अपरा रूप में ब्रह्म का एक मूल व अर्धभाग होने के कारण - पुरुष, प्रकृति व समस्त विश्व के श्रेष्ठता संवर्धन में मूल व महती भूमिका है उसी को ---महिला दिवस पर यह आलेख सनमन समर्पित है....)
यदि मानव प्रकृति की संरचनात्मक कृति की सबसे उत्कृष्ट, समृद्ध व आधुनिकतम रूप है तो नारी प्रकृति की सृजनात्मक शक्ति का सर्वश्रेष्ठ व उच्चतम रूप है। इस संसार रूपी ईश्वरीय उद्यान को सुरम्य , सुन्दर व श्रेष्ठ बनाने में इसी नारी शक्ति का विभिन्न रूपों में योगदान रहा है। समय समय पर तत्कालीन राष्ट्रीय, सामाजिक व व्यक्तिगत आवश्यकताओं के अनुरूप एवं विकृतियों के उन्मूलन हेतु, महामानवों के जन्म व निर्माण की प्रक्रिया भी इसी नारी शक्ति की देन है।
माँ -दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती के रूप में आदिशक्ति, माँ के दूध के रूप में अपनी भावनात्मक संकल्प शक्ति, पत्नी के रूप में पुरुष की सहयोगिनी शक्ति एवं भगिनी, पुत्री, मित्र, सखी के रूप में स्नेह, संवेदनाओं एवं पवित्र भावनाओं को सींचने में युक्त नारी शक्ति, सत्य में ही पुरुष के निर्माण , विकास की एवं समाज के सृजन, अभिवर्धन व श्रेष्ठ व्यक्तित्व निर्माण की धुरी रही है। भारत में पुरा काल से ही नारी समाजका शिखर रूप व राष्ट्र की धुरी रही है।शास्त्रों में कहागया है--"दश पुत्र समां कन्या, यस्या शीलवती :सुता ।" तथा ---
" सम्राज्ञी श्वसुरे भव , सम्राज्ञी श्वसुरामं भव। सम्राज्ञी ननन्दारिं ,सम्राज्ञी अधिदेव्रषु ॥ "
सृष्टि की सारी सुव्यवस्था व सुन्दरता नारी शक्ति की ही अभिव्यक्ति है। विश्व भर की संस्कृति व सभ्यता का वर्त्तमान रूप नारी के अथक त्याग व बलिदान की ही कहानी है।
यह समय का अभिशाप ही है कि आज , मध्य युग की सामयिक परिस्थितियों के प्रभाव व तनाव के कारण नारी अन्तः करण की ऊर्जा व कोमलता को व्यक्तियों व बस्तुओं में आबद्ध करके उसे उसके सिद्धांतों , आदर्शों से विमुख करदिया गया | जब उसे चूल्हा व चौका तक सीमाबद्ध करदिया गया तो उसके प्रखरता नष्ट होने लगी | पारिवारिक शालीनता --मोह, अति संग्रह व व्यक्तिगत उपभोग में परिवर्तित होगई | पति नामक पुरुष द्वारा मनमानी ,उच्छृंखलता , अनीति एवं नारी उत्प्रीणन का मार्ग प्रशस्त हुआ। बच्चों में भी वही भाव घर करने लगे। प्रतिक्रया स्वरुप नए युग में नारी में भी आज़ादी की चाह, ,उच्छृंखलता, पुरुष उत्प्रीणन आदि भाव घर कर गए। आज नारी- पुरुष टकराव इसी प्रतिक्रया का परिणाम है। और यहीं से सामाजिक जीवन में भ्रष्टाचार का प्रारम्भ होता है; जो समाज व आगे की पीढी के लिए अभिशाप ही सिद्ध होरहा है व होंगे।
आज आवश्यकता है कि नारी व पुरुष दोनों ही विचारों की संकीर्णता से बाहर निकलें। पुरुष नारी को सम्पूर्ण सम्मान, वैचारिक व सामाजिक समानता प्रदान करे | आदि -मातृशक्ति को अपनी भूमिका निभाने योग्य स्तर पर पहुंचाना हम सबका पुनीत कर्तव्य है। नारी ने पुरुष के सामने आत्मसमर्पण का जो आदर्श रखा है इसका यह अर्थ नहीं कि पुरुष उसका मूल्य ही न समझे। स्वामी विवेकानंद ने कहा था--"भारतीयों ! भूलना नहीं , तुम्हारी संस्कृति का आदर्श सुशिक्षित नारी है। तुम्हारा समाज विराट महामाया की छाया मात्र है। "
इस कार्य में पहल नारी को ही करनी होगी। नारी अपने उत्प्रीणन की कथा अपनी सखियों,सम्बन्धियों व पुरुष-मित्रों से कह कर बोझ हलका कर लेती हैं ; परन्तु पुरुष अहं व संकोच के कारण नारी द्वारा अपने उत्प्रीणन की बात वे मित्रों से भी नहीं कह पाते व घुटते रहते हैं , जो नारी के प्रति असम्मान के रूप में व्यक्त होती है।
सुसंस्कृत पत्नी अपने पति को ईमानदार बनाने में पहल कर सकती है। सम्पन्नता कहीं अनैतिक कर्म से तो नहीं आरही , इस पर ध्यान रखना चाहिए। घर का संचालन मितव्ययिता पूर्वक हो कि सिर्फ ईमानदारी की कमाई ही पर्याप्त हो। इस प्रकार वह योग्य, ईमानदार , मितव्ययी व्यक्तियों व संतान का निर्माण करके , राष्ट्र व समाज की श्रेष्ठता संवर्धन में अपना योगदान करके, आदि काल से महामानवों के निर्माण व सामाजिक आदर्श की प्रतिष्ठा में अपने योगदान को पुनः स्थापित कर अपनी खोई हुई गरिमा को पुनः बहाल कर सकती है।
पढी-लिखी नारी अपने वर्ग को सुसंस्कृत तथा सुशिक्षित बनाने व ऊंचा उठाने में संकोच व भय को त्यागकर आगे आये तो पुरुष भी स्वयं भी सहयोग की भावना से आगे आयेंगे । तब कहीं भी द्वंद्व की स्थिति नहीं रहेगी। यही युग की पुकार है।
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