पश्चिमी जगत के पुरुष विरोधी रूप से उभरा नारी मुक्ति संघर्ष आज व्यापक मूल्यों के पक्षधर के रूप में अग्रसर हो रहा है । यह मानव समाज के उज्जवल भविष्य का संकेत है। बीसवीं सदी का प्रथमार्ध यदि नारी जागृति का काल था तो उत्तरार्ध नारी प्रगति का । इक्कीसवी सदी क़ा यह महत्वपूर्ण पूर्वार्ध नारी सशक्तीकरण क़ा काल है। आज सिर्फ पश्चिम में ही नहीं वरन विश्व के पिछड़े देशों में भी नारी घर से बाहर खुली हवा में सांस लेरही है , एवं जीवन के हर क्षेत्र में पुरुषों से भी दो कदम आगे बढ़ा चुकी है। अब वह शीघ्र ही अतीत के उस गौरवशाली पद पर पहुँच कर ही दम लेगी जहां नारी के मनुष्य में देवत्व व धरती पर स्वर्ग की सृजिका तथा सांस्कृतिक चेतना की संबाहिका होने के कारण समाज ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता ‘ क़ा मूल मन्त्र गुनुगुनाने को बाध्य हुआ था ।
नारी की आत्म विस्मृति , दैन्यता व पराधीनता के कारणों में विभिन्न सामाजिक मान्यताएं व विशिष्ट परिस्थितियाँ रहीं हैं , जो देश ,काल व समाज के अनुसार भिन्न भिन्न हैं। पश्चिम के दर्शन व संस्कृति में नारी सदैव पुरुषों से हीन , शैतान की कृति,पृथ्वी पर प्रथम अपराधी थी। वह पुरोहित नहीं हो सकती थी । यहाँ तक कि वह मानवी भी है या नहीं ,यह भी विवाद क़ा विषय था। इसीलिये पश्चिम की नारी आत्म धिक्कार के रूप में एवं बदले की भावना से कभी फैशन के नाम पर निर्वस्त्र होती है तो कभी पुरुष की बराबरी के नाम पर अविवेकशील व अमर्यादित व्यवहार करती है।
पश्चिम के विपरीत भारतीय संस्कृति व दर्शन में नारी क़ा सदैव गौरवपूर्ण व पुरुष से श्रेष्ठतर स्थान रहा है। ‘अर्धनारीश्वर ‘ की कल्पना अन्यंत्र कहाँ है। भारतीय दर्शन में सृष्टि क़ा मूल कारण , अखंड मातृसत्ता – अदिति भी नारी है। वेद माता गायत्री है। प्राचीन काल में स्त्री ऋषिका भी थी, पुरोहित भी। व गृह स्वामिनी, अर्धांगिनी, श्री, समृद्धि आदि रूपों से सुशोभित थी। कोइ भी पूजा, यग्य, अनुष्ठान उसके बिना पूरा नहीं होता था। ऋग्वेद की ऋषिका -शची पोलोमी कहती है–
“” अहं केतुरहं मूर्धाहमुग्रा विवाचानी । ममेदनु क्रतुपति: सेहनाया उपाचरेत ॥ “”—ऋग्वेद -१०/१५९/२
अर्थात -मैं ध्वजारूप (गृह स्वामिनी ),तीब्र बुद्धि वाली एवं प्रत्येक विषय पर परामर्श देने में समर्थ हूँ । मेरे कार्यों क़ा मेरे पतिदेव सदा समर्थन करते हैं । हाँ , मध्ययुगीन अन्धकार के काल में बर्बर व असभ्य विदेशी आक्रान्ताओं की लम्बी पराधीनता से उत्पन्न विषम सामाजिक स्थिति के घुटन भरे माहौल के कारण भारतीय नारी की चेतना भी अज्ञानता के अन्धकार में खोगई थी।
नई सदी में नारी को समाज की नियंता बनने के लिए किसी से अधिकार माँगने की आवश्यकता नहीं है, वरन उसे अर्जित करने की है। आरक्षण की वैशाखियों पर अधिक दूर तक कौन जासका है । परिश्रम से अर्जित अधिकार ही स्थायी संपत्ति हो सकते हैं। परन्तु पुरुषों की बराबरी के नाम पर स्त्रियोचित गुणों व कर्तव्यों क़ा बलिदान नहीं किया जाना चाहिए। ममता, वात्सल्य, उदारता, धैर्य,लज्जा आदि नारी सुलभ गुणों के कारण ही नारी पुरुष से श्रेष्ठ है। जहां ‘ कामायनी ‘ क़ा रचनाकार ” नारी तुम केवल श्रृद्धा हो” से नतमस्तक होता है, वहीं वैदिक ऋषि घोषणा करता है कि-”….स्त्री हि ब्रह्मा विभूविथ :” उचित आचरण, ज्ञान से नारी तुम निश्चय ही ब्रह्मा की पदवी पाने योग्य हो सकती हो। ( ऋ.८/३३/१६ )।
नारी मुक्ति व सशक्तीकरण क़ा यह मार्ग भटकाव व मृगमरीचिका से भी मुक्त नहीं है। नारी -विवेक की सीमाएं तोड़ने पर सारा मानव समाज खतरे में पड़ सक़ता है। भौतिकता प्रधान युग में सौन्दर्य की परिभाषा सिर्फ शरीर तक ही सिमट जाती है। नारी मुक्ति के नाम पर उसकी जड़ों में कुठाराघात करने की भूमिका में मुक्त बाज़ार व्यवस्था व पुरुषों के अपने स्वार्थ हैं । परन्तु नारी की समझौते वाली भूमिका के बिना यह संभव नहीं है। अपने को ‘बोल्ड’ एवं आधुनिक सिद्ध करने की होड़ में, अधिकाधिक उत्तेज़क रूप में प्रस्तुत करने की धारणा न तो शास्त्रीय ही है और न भारतीय । आज नारी गरिमा के इस घातक प्रचलन क़ा प्रभाव तथाकथित प्रगतिशील समाज में तो है ही, ग्रामीण समाज व कस्बे भी इसी हवा में हिलते नज़र आ रहे हैं। नई पीढी दिग्भ्रमित व असुरक्षित है। युवतियों के आदर्श वालीवुड व हालीवुड की अभिनेत्रियाँ हैं। सीता, मदालसा, अपाला,लक्ष्मी बाई ,ज़ोन ऑफ़ आर्क के आदर्श व उनको जानना पिछड़ेपन की निशानी है।
इस स्थिति से उबरने क़ा एकमात्र उपाय यही है कि नारी अन्धानुकरण त्याग कर ,भोगवादी संस्कृति से अपने को मुक्त करे। अपनी लाखों , करोड़ों पिछड़ी अनपढ़ बेसहारा बहनों के दुखादर्दों को बांटकर उन्हें शैक्षिक , सामाजिक, व आर्थिक स्वाबलंबन क़ा मार्ग दिखाकर सभी को अपने साथ प्रगति के मार्ग पर अग्रसर होना सिखाये । तभी सही अर्थों में सशक्त होकर नारी इक्कीसवीं सदी की समाज की नियंता हो सकेगी ।
----------डा श्याम गुप्त
पश्चिम के विपरीत भारतीय संस्कृति व दर्शन में नारी क़ा सदैव गौरवपूर्ण व पुरुष से श्रेष्ठतर स्थान रहा है। ‘अर्धनारीश्वर ‘ की कल्पना अन्यंत्र कहाँ है। भारतीय दर्शन में सृष्टि क़ा मूल कारण , अखंड मातृसत्ता – अदिति भी नारी है। वेद माता गायत्री है। प्राचीन काल में स्त्री ऋषिका भी थी, पुरोहित भी। व गृह स्वामिनी, अर्धांगिनी, श्री, समृद्धि आदि रूपों से सुशोभित थी। कोइ भी पूजा, यग्य, अनुष्ठान उसके बिना पूरा नहीं होता था। ऋग्वेद की ऋषिका -शची पोलोमी कहती है–
“” अहं केतुरहं मूर्धाहमुग्रा विवाचानी । ममेदनु क्रतुपति: सेहनाया उपाचरेत ॥ “”—ऋग्वेद -१०/१५९/२
अर्थात -मैं ध्वजारूप (गृह स्वामिनी ),तीब्र बुद्धि वाली एवं प्रत्येक विषय पर परामर्श देने में समर्थ हूँ । मेरे कार्यों क़ा मेरे पतिदेव सदा समर्थन करते हैं । हाँ , मध्ययुगीन अन्धकार के काल में बर्बर व असभ्य विदेशी आक्रान्ताओं की लम्बी पराधीनता से उत्पन्न विषम सामाजिक स्थिति के घुटन भरे माहौल के कारण भारतीय नारी की चेतना भी अज्ञानता के अन्धकार में खोगई थी।
नई सदी में नारी को समाज की नियंता बनने के लिए किसी से अधिकार माँगने की आवश्यकता नहीं है, वरन उसे अर्जित करने की है। आरक्षण की वैशाखियों पर अधिक दूर तक कौन जासका है । परिश्रम से अर्जित अधिकार ही स्थायी संपत्ति हो सकते हैं। परन्तु पुरुषों की बराबरी के नाम पर स्त्रियोचित गुणों व कर्तव्यों क़ा बलिदान नहीं किया जाना चाहिए। ममता, वात्सल्य, उदारता, धैर्य,लज्जा आदि नारी सुलभ गुणों के कारण ही नारी पुरुष से श्रेष्ठ है। जहां ‘ कामायनी ‘ क़ा रचनाकार ” नारी तुम केवल श्रृद्धा हो” से नतमस्तक होता है, वहीं वैदिक ऋषि घोषणा करता है कि-”….स्त्री हि ब्रह्मा विभूविथ :” उचित आचरण, ज्ञान से नारी तुम निश्चय ही ब्रह्मा की पदवी पाने योग्य हो सकती हो। ( ऋ.८/३३/१६ )।
नारी मुक्ति व सशक्तीकरण क़ा यह मार्ग भटकाव व मृगमरीचिका से भी मुक्त नहीं है। नारी -विवेक की सीमाएं तोड़ने पर सारा मानव समाज खतरे में पड़ सक़ता है। भौतिकता प्रधान युग में सौन्दर्य की परिभाषा सिर्फ शरीर तक ही सिमट जाती है। नारी मुक्ति के नाम पर उसकी जड़ों में कुठाराघात करने की भूमिका में मुक्त बाज़ार व्यवस्था व पुरुषों के अपने स्वार्थ हैं । परन्तु नारी की समझौते वाली भूमिका के बिना यह संभव नहीं है। अपने को ‘बोल्ड’ एवं आधुनिक सिद्ध करने की होड़ में, अधिकाधिक उत्तेज़क रूप में प्रस्तुत करने की धारणा न तो शास्त्रीय ही है और न भारतीय । आज नारी गरिमा के इस घातक प्रचलन क़ा प्रभाव तथाकथित प्रगतिशील समाज में तो है ही, ग्रामीण समाज व कस्बे भी इसी हवा में हिलते नज़र आ रहे हैं। नई पीढी दिग्भ्रमित व असुरक्षित है। युवतियों के आदर्श वालीवुड व हालीवुड की अभिनेत्रियाँ हैं। सीता, मदालसा, अपाला,लक्ष्मी बाई ,ज़ोन ऑफ़ आर्क के आदर्श व उनको जानना पिछड़ेपन की निशानी है।
इस स्थिति से उबरने क़ा एकमात्र उपाय यही है कि नारी अन्धानुकरण त्याग कर ,भोगवादी संस्कृति से अपने को मुक्त करे। अपनी लाखों , करोड़ों पिछड़ी अनपढ़ बेसहारा बहनों के दुखादर्दों को बांटकर उन्हें शैक्षिक , सामाजिक, व आर्थिक स्वाबलंबन क़ा मार्ग दिखाकर सभी को अपने साथ प्रगति के मार्ग पर अग्रसर होना सिखाये । तभी सही अर्थों में सशक्त होकर नारी इक्कीसवीं सदी की समाज की नियंता हो सकेगी ।
12 comments:
ye aapne sahi kaha hai ki aarakshan kee baisakhi par koi bhi bahut door tak nahi ja paya hai aur isliye nari ko bhi in baisakhiyon kee aur n dekhkar apni yogyata se sthan hasil karna hoga..
nari par aapke vichar padhkar achchha laga.aaj nari ko aage badhne ke liye swayam ke dam par hi aage badhna hoga.
डा. श्याम गुप्ता जी ! आप तो कहते हैं कि वैदिक धर्म के अनुसार नारी को दोयम दर्जे पर रहना चाहिए ?
@ शिखा जी ! AIBA परइन्होंने यह बात आपकी पोस्ट पर ही तो कही थी न ?
शिखा व शालिनी जी धन्यवाद , आप गहराई को समझ पाईं....
जमाल जी...वैदिक धर्म में स्त्री-पुरुष गाडी के दो पहिये बताये गये हैं जहां कोई दोयम दर्ज़े का नहीं होता....हां आवश्यकतानुसार दोनों ही अपने आप के दर्ज़े बदल सकते हैं तो समन्वयता रहती है...जैसा इस श्लोक में कहा है..
अहं केतुरहं मूर्धाहमुग्रा विवाचानी । ममेदनु क्रतुपति: सेहनाया उपाचरेत ॥ “”—ऋग्वेद -१०/१५९/२
@ डा. श्याम गुप्ता जी ! पुरूष और नारी दो पहियों के समान हैं । यह अर्थ तो न इस वेदमंत्र का है और न ही किसी और वेद मंत्र का ।
देखिए वेद नारी के बारे में क्या बताते हैं ?
'स्त्री के मन को शिक्षित नहीं किया जा सकता . उसकी बुद्धि तुच्छ होती है .' (ऋग्वेद 8, 33, 17)
'स्त्रियों के साथ मैत्री नहीं हो सकती . इनके दिल लकड़बग्घों के दिलों से क्रूर होते हैं . '(ऋग्वेद 10, 95, 15)
अब सच आपके सामने है । बताइये कि क्या नारी के बारे में वेद विचार से आप सहमत हैं ?
@ शालिनी जी और शिखा जी ! आप भी नारी वर्ग से हैं । आपकी राय भी बहुत अहम है । आप भी अपनी राय दें ।
......
Note : http://blogkikhabren.blogspot.com
हिंदी ब्लॉग जगत का पहला अनोखा ब्लॉग समाचार पत्र है जिसे आपको मिलेंगी ब्लॉग जगत की घटनाओं और हलचल की जानकारी। अगर आप ब्लॉग पत्रकार बनने के इच्छुक हों तो कृप्या अपनी email id भेज दीजिए ।
jamaal ji, ये वेवकूफ़ी के समझे/ बताये/ लगाये गये अर्थ हैं...असली मन्त्र लिखिये...अर्थ हम बतायेंगे.....
देखिये असली मन्त्र व अर्थ...रिग्वेद १०/१०/७ मन्त्र है..."यमस्य मा यमं कम आगन्त्समाने योनौ सह शेय्याय। जायेव पत्यै तन्वै रिरिच्यां वि चिद ब्रहेव रथ्येव चक्रा ॥"....अर्थात यमी कहती है कि मुझे तेरे साथ की इच्छा हुई है, पति-पत्नी ग्रह्स्थ रूपी रथ के दो पहिये के समान होते हैं, तेरे मना करने पर रथ टूट जायगा ।
---एसे गलत सलत जानकारियों को भूलकर कुप्रचार बन्द कर दीजिये...
@ आदरणीय डा. साहब आपने कहा कि
'jamaal ji, ये वेवकूफ़ी के समझे/ बताये/ लगाये गये अर्थ हैं...असली मन्त्र लिखिये...अर्थ हम बतायेंगे.....'
आपको इतनी बड़ी बात नहीं बोलनी चाहिए क्योंकि पंडित श्री राम आचार्य को ज्ञानी मानकर हिन्दू समाज इज्ज़त देता है और उनके अनुवाद को सनातनी विद्वान् सही मानते हैं . देखिये वह भी वेद मन्त्र का अर्थ यही बता रहे हैं .
न वै स्त्रैणानि सख्यानि संति सालावृकाणां हृदयान्येता
स्त्रियों और वृकों का हृदय एकसा होता है , उनकी मित्रता कभी अटूट नहीं होती ।ऋग्वेद 10:95:15 अनुवाद पं. श्री राम ‘शर्मा आचार्य
@ आदरणीय डा. श्याम गुप्ता साहब आपने कहा कि
'अर्थात यमी कहती है कि मुझे तेरे साथ की इच्छा हुई है, पति-पत्नी ग्रह्स्थ रूपी रथ के दो पहिये के समान होते हैं, तेरे मना करने पर रथ टूट जायगा ।
आपने ऋग्वेद 10 /10 /7 का उद्धरण दिया जिसमें यमी अपने भाई यम से शारीरिक सम्बन्ध बनाने के लिए तर्क वितर्क कर रही है , पहली बात तो यह है कि वैदिक काल कि नेक औरत ऐसी गन्दी इच्छा कर ही नहीं सकती . यह मन्त्र बाद में किसी ने बना लिया है ताकि आर्यों के महान पूर्वजों को बदनाम किया जा सके.
लेकिन अगर आप मुझ से सहमत नहीं हैं और इस मन्त्र को वैदिक काल कि घटना ही मानते हैं तो मैं यह कहूँगा कि यमी कोई आदर्श नारी नहीं थी इसलिए उसकी बात को वैदिक व्यवस्था के प्रमाण के तौर पर पेश नहीं किया जा सकता . आप कोई दूसरा प्रमाण दीजिये .
आप हमारे पूर्वजों को बदनाम करना बंद कर दीजिये.
धन्यवाद.
----आप भ्रम में हैं जमाल जी, रिग्वेदिक काल में नारी अत्यंत विवेकशील, स्वतंत्र व मर्यादित थी...पति के सम्मुख कुछ भी कहने से क्या परहेज़...गंवार, ज़ाहिल, अनपढ स्त्रियां आज भी पति के सामने मुंह नहीं खोलतीं तो क्या वह आदर्श स्थित मानी जायगी....आज भी आधुनिक..एज्यूकेटेड नारी/ पति-पत्नी सब कुछ पति से स्पष्ट रूप में कहती/व बात करते है....कहना ही चाहिये...
--- ...इस श्लोक का अर्थ है..वे स्त्रियां जिनका ह्रदय ब्रक के समान अन्यान्य स्थान भटकता रहता है वे मित्रता नहीं समझ पातीं/ मित्र नही होतीं हैं...ये आख्यान व उपाख्यान हैं जिनमें कथनोपकथन होते हैं ...नीति-निर्देशन नहीं....
OHH ! I WILL BE BACK SOON.
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