ऐसी ही स्थिति को देखते हुए अभी हाल में ५ अगस्त २०१० को सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा कि दहेज़ हत्या के मामले में आरोप ठोस और पक्के होने चाहिए ,महज अनुमान और अंदाजों के आधार पर ये आरोप नहीं लगाये जा सकते खासकर पति के परिजनों पर ये आरोप महज अनुमान पर नहीं गढ़े जा सकते कि वे एक ही परिवार के हैं इसलिए ये मान लेना चाहिए कि उन्होंने ज़रूर पत्नी को प्रताड़ित किया होगा .जस्टिस आर.ऍम.लोढ़ा और ऐ .के. पटनायक की खंडपीठ ने यह कहते हुए पति की माँ और छोटे भाई के खिलाफ लगाये गए दहेज़ प्रताड़ना और दहेज़ हत्या के आई.पी.सी. की धारा ४९८-ए तथा ३०४-बी आरोपों को रद्द कर दिया .आरोपियों को बरी करते हुए खंडपीठ ने कहा "वधुपक्ष के लोग पति समेत उसके सभी परिजनों को अभियुक्त बना देते हैं चाहे उनका दूर तक इससे कोई वास्ता ना हो .ऐसे में मामलों में अनावश्यक रूप से परिजनों को अभियुक्त बनाने से केस पर प्रभाव नहीं पड़ता वरन असली अभियुक्त के छूट जाने का खतरा बना रहता है .
इस प्रकार उल्लेखनीय है कि दहेज़ मृत्यु व वधुएँ जलने की समस्या के निवारण हेतु सन १९६१ में दहेज़ प्रतिषेध अधिनियम पारित किया गया था परन्तु यह कानून विशेष प्रभावी न सिद्ध हो सकने के कारण सन १९८३ में दंड सहिंता में धारा ४९८-क जोड़ी गयी जिसके अंतर्गत विवाहिता स्त्री के प्रति क्रूरता को अपराध मानकर दंड का प्रावधान रखा गया .साथ ही साक्ष्य अधिनियम में धारा ११३-क जोड़ी गयी जिसमे विवाहिता स्त्री द्वारा की गयी आत्महत्या के मामले में उसके पति और ससुराल वालों की भूमिका के विषय में दुश्प्ररण सम्बन्धी उपधारना के उपबंध हैं परन्तु इससे भी समस्या का समाधान कारक हल ना निकलते देख दहेज़ सम्बन्धी कानून में दहेज़ प्रतिषेध संशोधन अधिनियम १९८६ द्वारा महत्वपूर्ण परिवर्तन किये गए .साथ ही दंड सहिंता में धारा ३०४-ख जोड़ी गयी तथा साक्ष्य अधिनियम में नई धारा ११३-ख जोड़ी गयी जिसमे दहेज़ मृत्यु के सम्बन्ध में उपधारना सम्बन्धी प्रावधान हैं .इन सब परिवर्तनों के बावजूद दहेज़ समस्या आज भी सामाजिक अभिशाप के रूप में यथावत बनी हुई है जो अपराध विशेषज्ञों के लिए गंभीर चिंता का विषय बनी हुई है.
अब मैं आपसे ही पूछती हूँ कि आप इस सम्बन्ध में क्या दृष्टिकोण रखते हैं? जहाँ तक मैं लोगों को जानती हूँ वे बेटी के विवाह पर दहेज़ की चिंता से ग्रसित रहते हैं और इसकी बुराइयाँ करते हैं किन्तु जब समय आता है बेटे के विवाह का तो कमर कस कर दहेज़ लेने को तैयार हो जाते हैं यही दोहरा व्यवहार हमारी चिंता बढ़ाये जा रहा है.यदि बेटे की पढाई पर माँ-बाप खर्चा करते हैं तो क्या बेटी मुफ्त में पढ़ लिख जाती है?उसे पालने पोसने में उनका कोई खर्चा नहीं होता फिर लड़की के माँ -बाप से लड़के के पालन-पोषण का खर्चा क्यों लिया जाता है?इसके साथ ही एक स्थिति और है जहाँ अकेली लड़की है वहाँ तो उसके ससुराल वाले ये चाहते हैं की लड़की के माँ=बाप से उनका जीने का अधिकार भी जल्दी ही छीन लिया जाये और इस जल्दी का परिणाम ये है कि अकेली लड़कियां दहेज़ का ज्यादा शिकार हो रही हैं.ये समस्या हमारे द्वारा ही उत्पन्न कि गयी है और कानून इस सम्बन्ध में चाहे जो करे सही उपाय हमें ही करने होंगे और हम ऐसा कर सकते हैं.
शालिनी कौशिक [एडवोकेट ]
इस प्रकार उल्लेखनीय है कि दहेज़ मृत्यु व वधुएँ जलने की समस्या के निवारण हेतु सन १९६१ में दहेज़ प्रतिषेध अधिनियम पारित किया गया था परन्तु यह कानून विशेष प्रभावी न सिद्ध हो सकने के कारण सन १९८३ में दंड सहिंता में धारा ४९८-क जोड़ी गयी जिसके अंतर्गत विवाहिता स्त्री के प्रति क्रूरता को अपराध मानकर दंड का प्रावधान रखा गया .साथ ही साक्ष्य अधिनियम में धारा ११३-क जोड़ी गयी जिसमे विवाहिता स्त्री द्वारा की गयी आत्महत्या के मामले में उसके पति और ससुराल वालों की भूमिका के विषय में दुश्प्ररण सम्बन्धी उपधारना के उपबंध हैं परन्तु इससे भी समस्या का समाधान कारक हल ना निकलते देख दहेज़ सम्बन्धी कानून में दहेज़ प्रतिषेध संशोधन अधिनियम १९८६ द्वारा महत्वपूर्ण परिवर्तन किये गए .साथ ही दंड सहिंता में धारा ३०४-ख जोड़ी गयी तथा साक्ष्य अधिनियम में नई धारा ११३-ख जोड़ी गयी जिसमे दहेज़ मृत्यु के सम्बन्ध में उपधारना सम्बन्धी प्रावधान हैं .इन सब परिवर्तनों के बावजूद दहेज़ समस्या आज भी सामाजिक अभिशाप के रूप में यथावत बनी हुई है जो अपराध विशेषज्ञों के लिए गंभीर चिंता का विषय बनी हुई है.
अब मैं आपसे ही पूछती हूँ कि आप इस सम्बन्ध में क्या दृष्टिकोण रखते हैं? जहाँ तक मैं लोगों को जानती हूँ वे बेटी के विवाह पर दहेज़ की चिंता से ग्रसित रहते हैं और इसकी बुराइयाँ करते हैं किन्तु जब समय आता है बेटे के विवाह का तो कमर कस कर दहेज़ लेने को तैयार हो जाते हैं यही दोहरा व्यवहार हमारी चिंता बढ़ाये जा रहा है.यदि बेटे की पढाई पर माँ-बाप खर्चा करते हैं तो क्या बेटी मुफ्त में पढ़ लिख जाती है?उसे पालने पोसने में उनका कोई खर्चा नहीं होता फिर लड़की के माँ -बाप से लड़के के पालन-पोषण का खर्चा क्यों लिया जाता है?इसके साथ ही एक स्थिति और है जहाँ अकेली लड़की है वहाँ तो उसके ससुराल वाले ये चाहते हैं की लड़की के माँ=बाप से उनका जीने का अधिकार भी जल्दी ही छीन लिया जाये और इस जल्दी का परिणाम ये है कि अकेली लड़कियां दहेज़ का ज्यादा शिकार हो रही हैं.ये समस्या हमारे द्वारा ही उत्पन्न कि गयी है और कानून इस सम्बन्ध में चाहे जो करे सही उपाय हमें ही करने होंगे और हम ऐसा कर सकते हैं.
शालिनी कौशिक [एडवोकेट ]
1 comments:
upyogi v sachchai se bhari post.aabhar ...
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