नेकी को इल्ज़ाम न दो

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  • Wednesday, August 17, 2011
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  • DR. ANWER JAMAL
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  • इस्लाम में न कट्टरता कल थी और न ही आज है
    एक नेक औरत अपने एक ही पति के सामने समर्पण करती है, हरेक के सामने नहीं और अगर कोई दूसरा पुरूष उस पर सवार होने की कोशिश करता है तो वह मरने-मारने पर उतारू हो जाती है। वह जिसे मारती है दुनिया उस मरने वाले पर लानत करती है और उस औरत की नेकी और बहादुरी के गुण गाती है। इसे उस औरत की कट्टरता नहीं कहा जाता बल्कि उसे अपने एक पति के प्रति वफ़ादार माना जाता है। दूसरी तरफ़ हमारे समाज में ऐसी भी औरतें पाई जाती हैं कि वे ज़रा से लालच में बहुतों के साथ नाजायज़ संबंध बनाये रखती हैं। उन औरतों को हमारा समाज, बेवफ़ा और वेश्या कहता है। वे किसी को भी अपने शरीर से आनंद लेने देती हैं, उनके इस अमल को हमारे समाज में कोई भी ‘उदारता‘ का नाम नहीं देता और न ही उसे कोई महानता का खि़ताब देता है।

    अपने सच्चे स्वामी को पहचानिए
    ठीक ऐसे ही इस सारी सृष्टि का और हरेक नर-नारी का सच्चा स्वामी केवल एक प्रभु पालनहार है, उसी का आदेश माननीय है, केवल वही एक पूजनीय है। जो कोई उसके आदेश के विपरीत आदेश दे तो वह आदेश ठोकर मारने के लायक़ है। उस सच्चे स्वामी के प्रति वफ़ादारी और प्रतिबद्धता का तक़ाज़ा यही है। अब चाहे इसमें कोई बखेड़ा ही क्यों न खड़ा हो जाय।

    बग़ावत एक भयानक जुर्म है
    जो लोग ज़रा से लालच में आकर उस सच्चे मालिक के हुक्म को भुला देते हैं, वे बग़ावत और जुर्म के रास्ते पर निकल जाते हैं, दौलत समेटकर, ब्याज लेकर ऐश करते हैं, अपनी सुविधा की ख़ातिर कन्या भ्रूण को पेट में ही मार डालते हैं। वे सभी अपने मालिक के बाग़ी हैं, वेश्या से भी बदतर हैं।
    पहले कभी औरतें अपने अंग की झलक भी न देती थीं लेकिन आज ज़माना वह आ गया है कि जब बेटियां सबके सामने चुम्बन दे रही हैं और बाप उनकी ‘कला‘ की तारीफ़ कर रहा है। आज लोगों की समझ उलट गई है। ज़्यादा लोग ईश्वर के प्रति अपनी वफ़ादारी खो चुके हैं।

    खुश्बू आ नहीं सकती कभी काग़ज़ के फूलों से 
    अपनी आत्मा पर से आत्मग्लानि का बोझ हटाने के लिए उन्होंने खुद को सुधारने के बजाय खुद को उदार और वफ़ादारों को कट्टर कहना शुरू कर दिया है। लेकिन वफ़ादार कभी इल्ज़ामों से नहीं डरा करते। उनकी आत्मा सच्ची होती है। नेक औरतें अल्प संख्या में हों और वेश्याएं बहुत बड़ी तादाद में, तब भी नैतिकता का पैमाना नहीं बदल सकता। नैतिकता के पैमाने को संख्या बल से नहीं बदला जा सकता।
    दुनिया भर की मीडिया उन देशों के हाथ में है जहां वेश्या को ‘सेक्स वर्कर‘ कहकर सम्मानित किया जाता है, जहां समलैंगिक संबंध आम हैं, जहां नंगों के बाक़ायदा क्लब हैं। सही-ग़लत की तमीज़ खो चुके ये लोग दो-दो विश्वयुद्धों में करोड़ों मासूम लोगों को मार चुके हैं और आज भी तेल आदि प्राकृतिक संपदा के लालच में जहां चाहे वहां बम बरसाते हुए घूम रहे हैं। वास्तव में यही आतंकवादी हैं। जो यह सच्चाई नहीं जानता, वह कुछ भी नहीं जानता।

    वफ़ादारी
    आप मीडिया को बुनियाद बनाकर मुसलमानों पर इल्ज़ाम लगा रहे हैं। यही पश्चिमी मीडिया भारत के नंगे-भूखों की और सपेरों की तस्वीरें छापकर विश्व को आज तक यही दिखाता आया है कि भारत नंगे-भूखों और सपेरों का देश है, लेकिन क्या वास्तव में यह सच है ?
    मीडिया अपने आक़ाओं के स्वार्थों के लिए काम करती आई है और आज नेशनल और इंटरनेशनल मीडिया का आक़ा मुसलमान नहीं है। जो उसके आक़ा हैं, उन्हें मुसलमान खटकते हैं, इसीलिए वे उसकी छवि विकृत कर देना चाहते हैं। आपको इस बात पर ध्यान देना चाहिए।
    ग़लतियां मुसलमानों की भी हैं। वे सब के सब सही नहीं हैं लेकिन दुनिया में या इस देश के सारे फ़सादों के पीछे केवल मुसलमान ही नहीं हैं। विदेशों में खरबों डालर जिन ग़द्दार भारतीयों का है, उनमें मुश्किल से ही कोई मुसलमान होगा। वे सभी आज भी देश में सम्मान और शान से जी रहे हैं। उनके खि़लाफ़ न आज तक कुछ हुआ है और न ही आगे होगा। उनके नाम आज तक किसी मीडिया में नहीं छपे और न ही छपेंगे क्योंकि मीडिया आज उन्हीं का तो गुलाम है।

    सच की क़ीमत है झूठ का त्याग
    सच को पहचानिए ताकि आप उसे अपना सकें और अपना उद्धार कर सकें।
    तंगनज़री से आप इल्ज़ाम तो लगा सकते हैं और मुसलमानों को थोड़ा-बहुत बदनाम करके, उसे अपने से नीच और तुच्छ समझकर आप अपने अहं को भी संतुष्ट कर सकते हैं लेकिन तब आप सत्य को उपलब्ध न हो सकेंगे।
    अगर आपको झूठ चाहिए तो आपको कुछ करने की ज़रूरत नहीं है लेकिन अगर आपको जीवन का मक़सद और उसे पाने का विधि-विधान चाहिए, ऐसा विधान जो कि वास्तव में ही सनातन है, जिसे आप अज्ञात पूर्व में खो बैठे हैं तब आपको निष्पक्ष होकर न्यायपूर्वक सोचना होगा कि वफ़ादार नेक नर-नारियों को कट्टरता का इल्ज़ाम देना ठीक नहीं है बल्कि उनसे वफ़ादारी का तौर-तरीक़ा सीखना लाज़िमी है।
    धन्यवाद! 

    3 comments:

    SACCHAI said...

    " tahe dil se sukriya is shandar ..aur behatarin post ke liye ...sukriya sir ..."

    http://eksacchai.blogspot.com/2011/08/blog-post_16.html

    Shalini kaushik said...

    डॉ.साहब ,
    कट्टरता की बात जहाँ तक है मुसलमानों में कही जाती है किन्तु ये आप केवल स्त्री पुरुष के सम्बन्ध में गलत जोड़ रहे हैं कहा ये जाता है की मुसलमान अपने धर्म के प्रति कट्टर है और मैं नहीं समझती की ये कोई गलत बात है अपने धर्म के प्रति तो हर धर्मावलम्बी को ऐसा ही होना चाहिए.ये नर नारी के विषय में आप कुछ ज्यादा ही लिख रहे हैं'' और भी गम हैं ज़माने में नर नारी के सिवा ''उन पर भी लिखिए.आप और आप जैसे ही कुछ अन्य ब्लोग्गर्स के कारण हमें भी इस विषय में लिखना पड़ा जबकि हम इस विषय को खास तवज्जो का विषय नहीं मानते.
    वैसे ये पोस्ट है एक सार्थक पोस्ट आभार .
    वह दिन खुदा करे कि तुझे आजमायें हम.

    DR. ANWER JAMAL said...

    सत्य के लिए प्रतिबद्धता और कट्टरता में अंतर
    शालिनी जी ! हम आजकल नहीं लिख रहे हैं बल्कि हम शुरू से ही लिख रहे हैं।
    दरअस्ल आपके सामने आजकल आ रहे हैं। यह लेख भी एक पुराने लेख का हिस्सा है जिसे आप लेख में दिए गए लिंक पर जाकर देख सकती हैं।
    हमारी वजह से आप लिख रही हैं तो अच्छा है कि हमारी वजह से आपके शानदार उद्गार सामने आ रहे हैं।
    आपका मत हमसे भिन्न है तो यह कोई मन मुटाव की बात हमारे लिए तो कभी बनेगा नहीं।
    सिद्धांतों के लिए प्रतिबद्धता को लोग कट्टरता का नाम दे देते हैं।
    कट्टरता घातक होती है, इसमें आदमी नया सीखने की और निष्पक्ष होकर सामयिक ज़रूरतों के मुताबिक़ सही फ़ैसला करने की क्षमता खो देता है जबकि अविचल भाव से अच्छे उसूलों के लिए त्याग करना प्रतिबद्धता कहलाता है।

    हमें आज कल्याणकारी सत्य के लिए प्रतिबद्ध समाज के निर्माण की घोर आवश्यकता है। ऐसा समाज जिसमें कट्टरता के लिए कोई गुंजाइश न हो।

    आप का शुक्रिया अच्छे विचारों के लिए !

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